अध्याय3 श्लोक27,28 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 27-28

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

संधि विच्छेद

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

अनुवाद

[वास्तव में] सारे कार्य प्रकृति के नियम और गुणों के [परिवर्तन के ] द्वारा किए जाते हैं, लेकिन अहंकार और अज्ञानतावश मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ', ऐसा मानता है॥ हे महाबाहो! जो ज्ञानी (तत्वविद) होते हैं वे गुणों और कर्म के इस रहस्य को जानते हैं कि [सात्विक, राजसिक और तामसिक] गुणो के बदलाव से सम्पूर्ण भौतिक कार्य संपन्न होते हैं| इस सत्य को जानकर इनमे(भौतिक परिवर्तनों में )आसक्त नही होते और कर्म करने का अहंकार नही रखते(अर्थात कर्ता होने का अहंकार नही रखते)|

व्याख्या

इन दो श्लोको में भगवान ने भौतिक जगत और कर्म के रहस्य का वर्णन किया है| भगवान ने स्पस्ट किया कि इस सृष्टि में सारे कार्य ईश्वर द्वारा बनाये हुए प्राकृतिक नियमों और प्रकृति में स्थित तीन गुणों के परिवर्तन के द्वारा संपन्न होते हैं| हमे यह ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्यों और दूसरे जीवों के सभी अंग, मस्तिस्क और यहाँ तक की आतंरिक चेतना भी इस प्राकृतिक शरीर का भाग हैं और शरीर स्वयं इस प्रकृति का एक छोटा स हिस्सा है | शरीर द्वारा किया गया कोई भी कार्य वास्तव में प्राकृतिक नियमों और उसके अंतर्गत जैविक, रासायनिक परिवर्तनों के फलस्वरूप है|खाना, सोना, उत्सर्जन और यहाँ तक कि सोचना सभी प्राकृतिक क्रियाएँ हैं|

ऐसे में किसी मनुष्य द्वारा यह मानना कि मैं यह करता हूँ, वह करता हूँ और कुछ नहीं बल्कि अज्ञानता और अहंकार के कारण है| जो ज्ञानी होते हैं वे शरीर और उसके द्वारा किये गए कार्यों को करने का अहंकार नहीं करते और कर्मो में आसक्त नहीं होते|