अध्याय3 श्लोक29 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 29

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥

संधि विच्छेद

प्रक्रतेः गुण सम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुण कर्मसु ।
तान अकृत्स्न विदः मन्दान् कृत्स्न वित् न विचालयेत्‌ ॥

अनुवाद

प्रकृति के गुणों(सत्व, रजस और तमस) से वसीभूत अल्पज्ञ मनुष्य सांसारिक कर्मो में आसक्त होते हैं | ज्ञानियों को चाहिए कि ऐसे मनुष्यों जो [किसी कारण] ज्ञान को नहीं जान पाते को [दोष देकर] विचलित न करें|

व्याख्या

इस श्लोक में पुनः भगवान ने ज्ञानियों के लिए ज्ञान और सामाजिक व्यावहारिकता में सामंजस्य बनाने का निर्देश दिया है|
ज्ञान का प्रयोग सामाजिक भलाई के लिए होना चाहिए न कि प्रदर्शन के लिए| भगवान ने यह स्पस्ट किया कि निः संदेह सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्म ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य है और मनुष्य के लिए सर्वोत्तम हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि जो ज्ञानी नहीं है वह पापी हैं| ज्ञान और पाप के बीच में सामान्य व्याहारिक जीवन भी है जिसमे अधिकतर मनुष्य ज्ञानी नहीं होते हुए भी निष्पाप हो सकते हैं|

तीन गुणों को समझना कठिन है इसलिए यह स्वाभाविक है कि बहुत लोग ज्ञान की अवस्था प्राप्त न करे पायें | ऐसी अवस्था में मनुष्य अपनी स्वाभाविक जीवन जीते हैं जो सांसारिक है|
ज्ञानी नहीं होना एक कमी अवश्य है लेकिन पाप नहीं है|

ऐसे मनुष्य दोषी नहीं है| ज्ञानियो को चाहिए कि वे वेवजह अपने ज्ञान का प्रदर्शन ऐसे साधारण मनुष्यों पर न करें क्योंकि इससे एक साधारण निर्दोष मनुष्य विचलित हो सकता है, हीन भावना से ग्रसित हो सकता है| इस प्रकार के ज्ञानी जो सामान्य लोगों को दोषी घोषित करते हैं, वे समाज का भला नहीं बल्कि हानि कर देते हैं| ज्ञानियो को समय और स्थान देखकर समाज और मनुष्यता की भलाई के लिए ज्ञान का प्रयोग करना चाहिए न कि प्रदर्शन के लिए|