अध्याय3 श्लोक30,31 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 30-31

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥

संधि विच्छेद

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्य आध्यात्म चेतसा ।
निराशीः निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
ये मे मतं इदं नित्यम् अनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तो अनुसूयन्तो मुच्यन्ते ते अपि कर्मभिः ॥

अनुवाद

[इसलिए] अपने सभी कर्मो को मुझे अर्पित कर दो और अपने मन को मुझमे स्थित करके आसक्ति रहित, मोह रहित और सन्ताप(क्षोभ या दुःख) रहित होकर युद्ध करो | जो [मनुष्य] शंशय त्यागकर श्रद्धापूर्वक मेरे मत का [सदा] अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करते हैं वे कर्मो के बंधन से मुक्त हो जाते हैं|

व्याख्या

कर्तव्य और कर्म के सारे रहस्य और कर्तव्य का सिद्धांत समझाने की बाद ईश्वर में श्रधा का मार्ग बताया| भगवान ने अर्जुन को कहा कि अपने सारे कर्म मुझे अर्पित कर दो और मुझमे पूर्ण श्रधा रखकर अपने कर्तव्य का पालन मेरी सेवा सेवा समझकर करो | इस प्रकार कर्म का फल मेरे अधीन होगा और तुम कर्मो के बंधन से मुक्त हो जायोगे|

ये दो श्लोक में जो मार्ग बताया गया है वह सर्व साधारण मनुष्यों के लिए बहुत उपयोगी है| हममे से अधिकतर मनुष्य ऐसे हैं जो आध्यात्म के सिद्धांत को पढ़ नहीं पाते और अगर पढते भी हैं तो समझ नहीं पाते | ऐसे में भगवान श्री कृष्ण ने श्रद्धा का अति सुगम मार्ग बताया | भगवान ने कहा कि एक साधारण मनुष्य सिर्फ इतना ही करे कि मुझमे श्रद्धा रखकर अपने कर्मो को मुझे अर्पित कर दे और ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करे तो वह कर्मो के बंधन से मुक्त हो जाता है|