अध्याय3 श्लोक33 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 33

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥

संधि विच्छेद

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेः ज्ञानवान् अपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥

अनुवाद

एक ज्ञानी भी अपने [उत्तम] स्वभाव के अनुसार ही [उत्तम] व्यवहार करता है क्योंकि अंततः सभी प्राणी अपने अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करते हैं | [फिर] इसमे निग्रह (इन्द्रियों पर वश) क्या करेगा?

व्याख्या

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण मनुष्य के स्वभाव और कर्म के बीच के सम्बन्ध का वर्णन किया है| भगवान कह रहे हैं कि महात्मा या पापी, सभी अपने अपने स्वभाव के अनुसार ही अच्छा या बुरा कर्म करते हैं| अगर कोई चाहकर सवभाव के विपरीत कार्य करे तो उसका सफल होने के अवसर कम हैं| इसलिए मनुष्यों को अपने स्वभाव का पहचानकर उसके अनुसार कार्य करना चाहिए और कर्म को देखकर अपने स्वभाव का निर्धारण करना चाहिए| अगर कोई ऐसा कर्म हो रहा है जिससे दूसरे मनुष्यों या जीवों की हानि हो रही है तो उस मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि उसके स्वभाव में कोई त्रुटि है, उसे शीघ्र ही उसे सही करने के प्रयास करना चाहिए| सभी मनुष्यों को हर हाल में अपने स्वभाव को पवित्र करने का प्रयास करना चाहिएय जिससे उनके कर्म अपने आप पवित्र हो जायेंगे|