संधि विच्छेद
इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य-अर्थे राग द्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोः न वशम् अगच्छेत् तौ हि अस्य परिपन्थिनौ ||
अनुवाद
इन्द्रियों का भोग पदार्थों (इन्द्रिय-अर्थ) के साथ आकर्षण और विकर्षण(राग-द्वेष) स्वाभाविक [प्रक्रिया] है| लेकिन मनुष्य को इन्द्रियों और भौतिक वस्तुओं के वश में नहीं आना चाहिए क्योंकि ये [इन्द्रिय और इन्द्रिय अर्थ अर्थात भोग पदार्थ] आत्मज्ञान में बाधक होते हैं|
व्याख्या
हमारा शरीर भौतिक प्रकृति का हिस्सा है और इन्द्रियां इस शरीर द्वारा प्रकृति को भोगने के साधन हैं| इस प्रकार इन्द्रियों का भौतिक पदार्थों या भोग पदार्थों के साथ आकर्षण या विकर्षण एक प्राकृतिक प्रक्रिया का भाग है| भौतिक जगत में रहते हुए इनसे अलग नहीं हुआ जा सकता| अपने स्वाभाविक शारीरिक अवस्था के अनुसार एक व्यक्ति इन्द्रियों को खुश करने वाली वस्तुओं से आकर्षण महसूस करते हैं और दूसरे वस्तुओं जो इन्द्रियों को नहीं भाती उससे विकर्षण| यह तो इस भौतिक जगत में स्वाभाविक है| इसमे कोई आपत्ति नहीं है|
अंतर तब होता है जब मनुष्य इन्द्रियों के इन आकर्षण और विकर्षण के प्रवाह पर अभिक्रिया करता है| एक योगी इन्द्रियों के वश में नहीं आता, वह इन्द्रियों द्वारा जनित (उत्पन्न) आकर्षण और विकर्षण को अपने शुद्ध बुधि से तोलता है, मानवीय मूल्यों पर और ईश्वर की दिशा में होने और न होने का निर्धारण करता है| और उचित होने पर ही उनका पालन करता है | ऐसा योगी इन्द्रियों के वश में नहीं आता बल्कि इन्द्रियों को अपने वश में रखता है |
दूसरी तरफ एक दूसरा मनुष्य इन्द्रियों के आकर्षण के वश में आकार इन्द्रियों को संतुष्ट करने के लिए भौतिक वस्तुओं के भोग में लिप्त होता है | इन्द्रियों को संतुष्ट करने के लिए कई ऐसे मनुष्य मानवीय मूल्यों और अपने कर्तव्य का भी उल्लंघन करते हैं| इन्द्रियों को संतुष्ट करने की यह प्रवृति अगर एक स्तर से आगे बढ़ जाये तो वासना का रूप लेती है और मानव समाज के लिए घातक होती है|
इन्द्रयों के वश में आकर भोग की प्रवृति से मनुष्य ईश्वर और अपने स्वयं की आत्मा से दूर हो जाता है| इन्द्रियां आत्म ज्ञान के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है | एक बुद्धिमान मनुष्य को कभी भी इन्द्रियों के वश में नहीं आना चाहिए|