संधि विच्छेद
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात् स्वनुष्ठितात्
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
अनुवाद
श्री रामानुजाचार्य के अनुवाद का हिंदी अनुवाद
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भले ही कमियां हों लेकिन अपना कर्तव्य दूसरे के लिए निर्धारित कर्तव्य से उत्तम है| अपने कर्तव्य करते हुए मृत्यु भी श्रेयकर है जबकि दूसरे के लिए निर्धारित कर्तव्य तो भयावह है(पतन देने वाला है) |
श्री माधवाचार्य के अनुवाद का हिंदी अनुवाद
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भले ही कमियां हों लेकिन अपने स्वभाव(रूचि या सामर्थ्य) के अनुसार कर्म करना दूसरे के स्वभाव(रूचि या सामर्थ्य) के अनुसार कर्म करने से कहीं उत्तम है| अपनी रूचि के लिए कर्म करते हुए मृत्यु भी श्रेयकर है जबकि किसी दूसरे के मतानुसार (रूचि के अनुसार) कर्म करना भयावह है(पतन देने वाला है) |
व्याख्या
यह श्लोक श्रीमद भगवद गीता और विशेषकर कर्म योग का एक अति महत्वपूर्ण श्लोक है| लेकिन एक बात और याद दिला दें कि यह श्लोक कुछ हिंदू विरोधी शक्तियों द्वारा गलत प्रहारित करके हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रयोग किया जा रहा है, इसलिए इस श्लोक का अर्थ भली भांति समझना वांछनीय है|
अर्थ को पूर्ण स्पस्ट करने के लिए हमने हिंदू धर्मं के दो प्रमुख आचार्यों श्री रामानुजचार्य(विशिष्ट अद्वैत वाद के जनक) और श्री माधवाचार्य(द्वैत सिद्धांत के रचयिता) के अनुवाद का हिंदी अनुवाद दिया है| अगर किसी सज्जन को हिंदी अनुवाद में कोई आपत्ति हो तो वह इसका अंग्रेजी अनुवाद पढ़ सकते हैं|
इस श्लोक को समझने के लिए हमे धर्म शब्द का अर्थ समझना होगा| धर्म एक बहुत ही व्यापक शब्द है जिसका प्रयोग एक बहुत विस्तृत क्षेत्र के विषयों के लिए होता है| धर्म का एक सबसे मूल अर्थ है किस जीव या वस्तु का आतंरिक स्वभाव | चूँकि प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई स्वभाव होता ही है इसलिए धर्म का प्रयोग निर्जीव पदार्थों के लिए भी हो सकता है|जैसे
जल का धर्म(स्वभाव) है गलाना, घोलना
अग्नि का धर्म(स्वभाव) है जलना, प्रज्वल्लित होना
वायु का धर्म(स्वभाव) है सुखाना, बहना
आदि
मनुष्यों और दूसरे जीवों के लिए भी धर्म उसके मूल स्वभाव को प्रदर्शित करने के लिए होता है| जैसे
संगीत एक संगीतकार का धर्म है|
कला एक कलाकार का धर्म है
आदि
मनुष्यों के परिपेक्ष्य में धर्म का प्रयोग मनुष्यों के स्वाभाविक कर्तव्यों को प्रदर्शित करने के लिए भी होता है|जैसे
शिक्षक का धर्म है बिना भेद भाव के शिक्षा देना
डॉक्टर का धर्म है जीवन की रक्षा करना
सैनिक का धर्म है अपने देश और समाज की रक्षा करना
ऊपर के श्लोक को दोनों ही अर्थो में प्रयोग किया जा सकता है| जैसा कि हमने पहले पढ़ा, इसके पहले कई श्लोक कर्म और कर्तव्यों के रहस्य का वर्णन करते हैं| इस श्लोक के ठीक पहले का श्लोक मनुष्य के आतंरिक स्वभाव का वर्णन करता है| इसलिए इस अध्याय में दोनों ही विषयों का प्रयोजन भी है|
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण यह निर्देश दे रहे हैं कि मनुष्यों को अपने आतंरिक स्वभाव के अनुसार कर्म का चयन करना चाहिए| अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करके ही कर्म का सुख प्राप्त किया जा सकता है| किसी दूसरे की नक़ल करके वैसा कार्य करना जो अपने स्वभाव से मेल नहीं खाता कभी सुख प्रदान नहीं कर सकता| बल्कि स्वभाव के विपरीत कार्य करने में सफलता प्राप्त करने का अवसर भी कम होता है|
जैसे मान लें एक गायक है और उसकी रूचि संगीत में है तो उसके लिए संगीत ही सुख प्रदान कर सकता है भले ही इसमे उतना पैसा न हो जितना किसी खेल में हो | इस श्लोक का यह भी अर्थ निकालता है कि मनुष्य को अपने आतंरिक स्वभाव का अनुसरण करना चाहिए, अपने स्वभाव का अनुसरण ही वास्तविक स्वतंत्रता है किसी दूसरे के मत या स्वभाव से कार्य करना एक प्रकार की परतंत्रता है|
अपनी रूचि, अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करके ही अधिकतम सफलता और सुख प्राप्त किया जा सकता है|
इसी प्रकार का अर्थ कर्तव्य के लिए भी लागु होता है| मनुष्य को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, किसी दूसरे के कर्तव्य की नक़ल नहीं करना चाहिए|