अध्याय3 श्लोक4 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 04

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥

संधि विच्छेद

न कर्मणाम् अनारंभन् नैः अकर्म्यं पुरुषः अश्नुते
न च सन्न्यसनात् एव सिद्धिं सम् अधिगच्छति ॥

अनुवाद

मनुष्य न तो निष्क्रिय होकर कर्म के बंधन से मुक्त हो सकता है और न ही कर्मो को त्यागकर सिद्धि को प्राप्त कर सकता है|

व्याख्या

ज्ञान और कर्म से सम्बंधित जब अर्जुन को भ्रम उत्पन्न हुआ तो सर्व प्रथम भगवान ने अर्जुन को सिद्धि के दो मार्ग बताये | वैज्ञानिक प्रवृति रखने वालों के लिए ज्ञान योग और शेष दूसरों के लिए कर्म योग|
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने स्पस्ट किया कि बिना कर्म के तो कुछ संभव ही नहीं है| इस जगत में कुछ भी होता है, जीव द्वार कुछ भी किया जाता है वह कर्म ही है| अतः अगर कोई यह समझ ले कि वह कर्म नहीं करेगा और इस प्रकार कर्म के बंधन से मुक्त हो जायेगा या कोई दूसरा यह सोच ले कि वह इस समाज का, अपने कर्तव्यों का त्याग करके सन्यासी बन जायेगा, सिद्ध हो जायेगा तो दोनों ही गलत हैं | कर्म से मुक्ति और सन्यास में सिद्धि दोनों ही कर्म करके ही प्राप्त किये जा सकते हैं कर्म का त्याग करके कभी नहीं|