अध्याय3 श्लोक5 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 05

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

संधि विच्छेद

न हि कश्चित् क्षणम् अपि जातु तिष्ठति अकर्मकृत्‌ ।
कार्यते हि अवशः कर्मः सर्वः प्रकृति जैः र्गुणैः ॥

अनुवाद

निःसंदेह कोई भी [जीव्] क्षणमात्र भी बिना कुछ [कर्म] किये नहीं रह सकता क्योंकि प्रत्येक प्राणी प्रकृति जनित गुणों द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य है|

व्याख्या

अर्जुन के कर्म और ज्ञान के मार्ग से सम्बंधित भ्रम का उत्तर देते हुए भगवान ने पिछले श्लोक में यह स्पस्ट किया कि न तो कर्म किये बिना न तो कोई कर्म के बंधन से मुक्त हो सकता है और न ही सिद्ध| इस श्लोक में भगवान ने कर्म के मूल स्वरूप को स्पस्ट किया |
भगवान ने कहा कि कर्म तो भौतिक जगत की एक मूल प्रक्रिया है, प्रकृति और जीवित जगत कर्म के अधीन ही परिवर्तन को प्राप्त होता है| ईश्वर द्वारा निर्मित प्रकृति नियमों के अधीन गुणों का परिवर्तन होता है और इस प्रकार कर्म होते ही हैं| कोई चाहकर भी कर्म किये बिना रह नहीं सकता | जीव हर पल कुछ न कुछ तो करता ही है| चाहे वह खाता है यह नहीं खाता है, चाहे सोचता है या नहीं सोचता है, जाहे चलता है, चाहे बैठता है, चाहे सोता है, सब कुछ कर्म के अधीन है| यहाँ तक की जीव का सांस लेनापाचन, उत्सर्जन आदि भी कर्म हैं| इसलिए कर्म न करने का तो कोई विकल्प ही नहीं है| इसलिए चाहे कोई ज्ञानयोग, सांख्य योग या चाहे भक्ति योग का पालन करे, कर्म तो करना पड़ता है|