अध्याय3 श्लोक6,7 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 06-07

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥

संधि विच्छेद

कर्म इन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रिय-अर्थान् विमूढ़ आत्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन
कर्म इन्द्रियैः कर्मयोगं असक्तः स विशिष्यते ॥

अनुवाद

जो [मनुष्य] अज्ञानतावश हठपूर्वक अपनी कर्म इन्द्रियों को नियंत्रित करता है लेकिन मन में उन इन्द्रिय सुख के बारे में सोचता रहता है [और यह मानता है कि वह सन्यासी है ] वह वास्तव में एक मिथ्याचारी है| किन्तु हे अर्जुन! वहीँ दूसरा वह [मनुष्य] जो अपने मन को नियंत्रित करता है और अपनी कर्म इन्द्रियों को अनासक्त होकर (फल की कामना किये बिना) कर्तव्य में लगाता है वह निश्चय ही श्रेष्ठ है|

व्याख्या

कर्म की सार्वभौमता की व्याख्या करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने पिछले दो श्लोकों में यह स्पस्ट किया कि कोई भी मनुष्य चाहकर भी कर्म का त्याग नहीं कर सकता क्योंकि कर्म जीवन का मूल गुण है और कोई भी जीव पल भर के लिए भी बिना कुछ किये नहीं रह सकता, प्रकृति जन्य गुणों के द्वारा हर जीव कर्म करने के लिए बाध्य है |
ऊपर के दो श्लोकों में भगवान असल सन्यास का वर्णन किया| भगवान ने दो उदाहरण देकर इस विषय को पूर्ण स्पस्ट किया|
भगवान ने कहा एक मनुष्य जो हठपूर्वक अपनी कर्म इन्द्रियों को नियंत्रित तो कर लेता है लेकिन मन में उन इन्द्रिय सुख के बारे में सोचता रहता है और इसे सन्यास मान लेता है तो यह अज्ञानता और एक मिथ्याचार है|

वही दूसरी ओर एक ऐसा मनुष्य है जो अपने मन के ऊपर नियंत्रण करके सभी कर्तव्यों का पालन करता है और किसी भौतिक इक्षा या फल की कामना नहीं करता, वह श्रेष्ठ है, वही असली सन्यासी है|

इस प्रकार भगवान ने यह स्पस्ट किया कि हमे अपने कर्तव्यों का नहीं बल्कि अपनी भौतिक इक्षाओं का त्याग करना चाहिए | सन्यास की प्राप्ति भी कर्म करके ही सुलभ है न कि कर्मो का त्याग करके|