अध्याय3 श्लोक10,11 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 10-11

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥

संधि विच्छेद

सह यज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरा उवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वम् एष वः अस्तु इष्ट कामधुक्‌ ॥
देवान् भावयत अनेन ते देवाः भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परम अवाप्स्यथ ॥

अनुवाद

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ द्वारा सभी जीवों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो ओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥ तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुम लोगों का पालन(देखभाल) करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे में सामंजस्य रखते हुए तुम(देवता और मनुष्य) परम कल्याण को प्राप्त होगे॥

व्याख्या

इन दों श्लोको में भगवान यज्ञ की महत्ता का वर्णन कर रहे हैं|यज्ञ कर्म की प्रक्रिया का मूल है | इस सृष्टि का निर्माणी भी यज्ञ की प्रक्रिया के द्वारा ही हुआ है| सृष्टि के आरम्भ में श्री ब्रम्हा ने यज्ञ के द्वारा ही विभिन्न जीवों की रचना की |

इन दो श्लोको से एक बहुत बड़े प्रश्न का भी उत्तर मिलता है| कई हिंदू विरोधियों द्वारा कई भगवान जैसे शब्दों का प्रयोग करके हिंदू धर्म को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता है| इस श्लोकों में यह बताया गया है कि वे देवता और मनुष्य विभिन्न स्तर के प्राणी है| देवता हमारे अभिभावक के समान हैं जो हमारी भौतिक इक्षाओं की पूर्ति करते हैं और हम मनुष्य उनकी साधना करके उन्हें प्रसन्न करते हैं|