अध्याय4 श्लोक11 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 11

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

संधि विच्छेद

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तान् तथा एव भजामि अहम्‌ ।
मम वर्त्मा अनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

अनुवाद

हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार फल प्रदान करता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥

व्याख्या

यह श्लोक भगवान के भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है| यह पाया गया है कि कई लोग विभिन्न प्रकार की साधना पद्धति और विभिन्न देवताओं की साधना की प्रासंगिता को लेकर भ्रमित होते हैं| भगवान ने इस श्लोक में यह स्पस्ट किया है कि कोई भक्त अगर मन में सच्ची श्रधा रखकर किसी भी साधना पद्धति को अपनाता है या किसी भी देवता को पूजता है उसकी साधना सफल अवश्य होती है | यह पूरी सृष्टि स्वयं उनके ही अधीन है और सभी देवताओं उनकी की शक्ति के प्रतिरूप है | साधना के सभी मार्ग अंततः उनतक ही पहुंचते हैं| इस बात को बहुत मार्मिक रूप से श्री आदि शंकराचार्य ने निम्न रूप से वर्णित किया है
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् |
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ||

जिस प्रकार आकाश से पृथ्वी पर बरसा हुआ जल, विभिन्न नदियों से बहता हुआ अंततः सागर में मिल जाता है, उसी प्रकार विभिन्न देवताओं कों अर्पित साधना अंततः भगवान श्री कृष्ण(केशव) के पास ही पहुंचती है|