अध्याय4 श्लोक13 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 13

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥

संधि विच्छेद

चातुर-वर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः ।
तस्य कर्तारम् अपि मां विद्धि अकर्तारम् अव्ययम्‌ ॥

अनुवाद

प्रकृति के गुण (सात्विक, राजसिक औरु तामसिक) और [और इन गुणों के] समतुल्य कर्मो के विभाग के आधार पर मैंने चार वर्णों को रचना की | यद्यपि मैं [इस सृष्टि का] निर्माता हूँ लेकिन यह जान लो कि मैं अकर्ता हूँ|

व्याख्या

यह श्लोक एक अति महत्वपूर्ण श्लोक है क्योंकि यह हिंदू धर्म के सबसे विवादित प्रश्न का समुचित और स्पस्ट उत्तर देता है| हिंदू धर्म पर ऐसा आरोप लगाया जाता है कि हिंदू धर्म जाति व्यवस्था के नाम पर भेद भाव पैदा करता है| सबसे पहली बात यह कि हिंदू धर्म का मूल ग्रन्थ श्रीमद भगवद गीता जाति की कहीं बात ही नहीं करता, बल्कि वर्ण की बात करता है| यह समाज का गुणों और कर्म के अनुसार वर्गीकरण है न की जाति व्यवस्था|

भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक में स्पस्ट किया है कि प्रकृति के तीन गुणों का विभिन्न अनुपात में मिश्रण मनुष्य में विभिन्न प्रकार के कार्मिक निपुणता उत्पन्न करता है| जो शांत स्वभाव, हृदय से करुण, दयावान, तपस्वी,क्षमाशील, विशेष ज्ञान युक्त और साधना में लीन रहते हैं उन्हें ब्राम्हण कहा जाता है|(१८:४२)

जो बहुत उत्साही, तेजस्वी, निडर, युद्ध में निपुण, अन्याय से लडने वाले और नेतृत्व करने वाले होते हैं उन्हें क्षत्रिय कहा जाता है|(१८:४३)

जो कृषि, गोपालन और व्यापर में निपुण होते हैं वे वैश्य कहलाते हैं|(१८:४४)
जो ऊपर में से कोई कार्य करने में असमर्थ होते हैं वे शारीरिक कार्य ही कर सकते हैं | वैसे लोग क्षुद्र कहलाते हैं|(१८:४४)
इसमे यह ध्यान देने वाली बात यह है कि यह विभाजन मनुष्य के अपने गुणों और उनकी निपुणता के आधार पर है|इसमे कोई कार्य कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं बल्कि समर्थता के कारण है|

इस तरह की संरचना तो लगभग हर जगह पायी जाती है| सभी कंपनी में कई डिपार्टमेंट(विभाग) होते है| जैसे इंजीनिरिंग, अकाउंट, sales, marketting इत्यादि|

इस सत्य को जानकार हमे आपस में भेदभाव कभी नहीं करना चाहिए| मनुष्य ही नहीं किसी भी जीव के साथ भेदभाव गलत है हमे ऐसे अपराध करने से बचना चाहिए|