अध्याय4 श्लोक16,17 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 16-17

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥

संधि विच्छेद

किं कर्म किं अकर्म इति कवयः अपि अत्र मोहिताः ।
तत् ते कर्म प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा मोक्ष्यसे अशुभात्‌॥
कर्मणः हि अपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणः च बोद्धव्यं गहना कर्मणः गतिः ॥

अनुवाद

कर्म क्या है? अकर्म क्या है? इसका निर्णय करने में तो विद्वान [मनुष्य ] भी भ्रमित हो जाते हैं | मैं तुम्हें अब कर्म का वास्तविक तत्व (रहस्य) बताता हूँ, जिसे जानकर तुम कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाओगे| कर्म का स्वरूप अति गहन(सूक्ष्म) है इसलिए [मेरे द्वारा बताये जाने वाले] कर्म, विकर्म और अकर्म के तत्व (रहस्य) को [ध्यान से सुनो और] ग्रहण करो (समझने का प्रयास करो) |

व्याख्या

अध्याय ३ और वर्तमान अध्याय के कुछ श्लोको में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म योग की भूमिका और कुह तथ्यों का वर्णन किया| लेकिन इन दो श्लोकों से शुरू करके श्लोक#३४ तक भगवन श्री कृष्ण ने कर्म योग का विस्तार बताया है| श्लोक#२४ से श्लोक #३४ तक कर्म योग के ही एक अन्य सिद्धांत यज्ञ की व्याख्या है|

विषय की शुरुआत करते ही भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्पस्ट किया कि साधारण से प्रतीत होने वाला कर्म योग वास्तव में गुढ़ है| कर्म, अकर्म को समझने में बुद्धिमान भी धोखा खा जाते हैं, साधारण मनुष्य का तो कहना ही क्या? इसलिए भगवान ने अर्जुन को यह आगाह किया कि कर्म योग का जो भी रहस्य वे बता रहे हैं उसे ध्यानपूर्वक सुनकर समझने का प्रयास करना चाहिए| दूसरे श्लोक में भगवान ने कर्म के विभाग भी बताये जो इस प्रकार हैं

१ कर्म
२. विकर्म
३. अकर्म

इसके आगे के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म के इन विभागों की व्याख्या की है|