अध्याय4 श्लोक18,19 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 18-19

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌ ॥
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥

संधि विच्छेद

कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्न-कर्मकृत्‌ ॥
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञान अग्नि दग्ध कर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥

अनुवाद

जो मनुष्य कर्म में अकर्म [की स्थिति को] देखता है और जो अकर्म में कर्म [की स्थिति को] देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है | वास्तव में वही योगी समस्त कर्मों को सिद्ध करता है| जो सभी [स्वार्थपूर्ण] कामनाओं से मुक्त होकर [अपना नियत] कर्म करता है और जिसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में भस्म हो गए हों, वह ज्ञानियों में भी ज्ञानी है|

व्याख्या

ऊपर के श्लोक श्रीमद भगवद गीता के सबसे गुढ़ श्लोकों में से हैं| इस बात का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि विभिन्न विद्वानों ने इस श्लोक को विभिन्न रूपों में व्याख्या की है|

श्लोक#१८ कर्म और अकर्म की सही परिभाषा देता है| साधारण रूप से जिसे हम करना(कर्म) और न करना समझते हैं वह एक सामाजिक परिभाषा है सैधांतिक या अध्यात्मिक नहीं| जैसे अध्याय ३ के श्लोक #५ में वर्णित है कुछ न करना तो संभव ही नहीं है

निःसंदेह कोई भी [जीव्] क्षणमात्र भी बिना कुछ [कर्म] किये नहीं रह सकता क्योंकि प्रत्येक प्राणी प्रकृति जनित गुणों द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य है|(३.५)

इसलिए इस कुछ करने और न करने आधार पर तो कर्म और अकर्म की परिभाषा ही नहीं बनती | कोई भी जीव क्षणमात्र के लिए कुछ बिना तो रह ही नहीं सकता|

ऊपर के श्लोक में कर्म और अकर्म की परिभाषा इस आधार पर निर्भर है कि कौन सा कर्म मनुष्य को कर्मो के बंधन से मुक्त करके मोक्ष की ओर ले जाता है और कौन से कर्म नहीं|

जब कोई मनुष्य बिना किसी स्वार्थ के अपना कर्तव्य मनुष्य मात्र की भलाई के लिए करता है तो वह कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है| इस प्रकार का कर्म वास्तव में कर्म है|

लेकिन अगर कोई मनुष्य फल की कामना से कर्म करता है तो उसे अपने फल को भोगने के लिए किसी ने किसी शरीर में इस लौकिक जगत में आना ही पड़ता है| जब तक उसकी एक भी इक्षा है तब तक वह कर्मो के बंधन से मुक्त नहीं है| चाहे वह कितना भी कार्य करे, कर्म के फल के इक्षा से युक्त कर्म वास्तव में अकर्म के ही हैं क्योंकि उससे मुक्ति संभव नहीं|