अध्याय4 श्लोक20,21 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 20-21

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ॥

संधि विच्छेद

त्यक्त्वा कर्म फल असङ्गं नित्य तृप्तः निराश्रयः ।
कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव किंचित् करोति सः ॥
निराशीः यत् चित्तात्मा त्यक्त सर्वपरिग्रहः ।
शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्न आप्नोति किल्बिषम्‌ ॥

अनुवाद

जिसने अपने कर्म के फलों का त्याग कर दिया है, जो अपनी अंतःकरण में नित्य तृप्त(संतुष्ट) हैं और संसार [के मोह] से स्वतन्त्र है, वह कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता | सभी [भौतिक] आकांक्षाओं से रहित, अपने मन और इन्दिर्यों को नियंत्रित करके और समस्त भौतिक स्वामित्व का परित्याग कर वह सिर्फ शरीर और समाज उपयोगी कर्म करता है| ऐसा मनुष्य कर्म करते हुए भी सभी पापों से मुक्त हो जाता है|

व्याख्या

पिछले श्लोक से आगे बताते हुए भगवान श्री कृष्ण ने इन श्लोको में अकर्म की परिभाषा को पूर्ण स्पस्ट किया है|
यहाँ पर भगवान ने अकर्म की अवस्था को प्राप्त करने के लिए निम्न गुणों का वर्णन किया है
१. कर्म के फलों का त्याग करके कर्म करना
२. अपनी आत्मा में सदा संतुस्ट और प्रसन्न रहना
३. संसार के लाभ या हानि के मोह से मुक्त रहना
४. संसार के वस्तुओं पर स्वामित्व की अभिलाषा से मुक्त रहना

जो मनुष्य उपर्युक्त गुणों से सुसज्जित होकर कर्म करता है वह सांसारिक रूप से कर्म करता हुआ तो प्रतीत होता है लेकिन अध्यात्मिक रूप से वह कुछ नहीं करता क्योंकि संसार और कर्मो के बंधन से मुक्त होकर वह मोक्ष की सर्वोच्च अवस्था में स्थित हो जाता है|

हाँ वह अपने शरीर और सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करने के लिए सभी कर्म अवश्य करता है|