अध्याय4 श्लोक23 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 23

गतसङ्ग2स्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥

संधि विच्छेद

गत-सङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञान अवस्थित चेतसः ।
यज्ञ आचारतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥

अनुवाद

जिसकी [भौतिक जगत से] आसक्ति नष्ट हो गई है, जो सभी सांसारिक मोह से मुक्त है, और जिसका चित्त [आत्म] ज्ञान में स्थित हो गया है और जो अपना कर्म सिर्फ यज्ञ [दूसरों के हित ] के लिए करता है उसके सभी कर्म [परमात्म तत्व में] विलीन हो जाते हैं|

व्याख्या

इस श्लोक में भी भगवान ने अकर्म अकर्म की उस शुद्ध अवस्था का वर्णन किया है इस अवस्था के व्याख्या करने के लिए भगवान ने बहुत रोचक अपितु अति गुढ़ शब्द का प्रयोग किया है|
भगवान ने कहा कि जो मनुष्य इस भौतिक जगत की क्षण भंगुरता को जान लेता है और सभी सांसारिक मोह को त्याग कर अपने चित्त को सम्पूर्ण सत्य परमात्मा में स्थित कर लेता है ; वह जो अपने कर्म को यज्ञ समझकर सिर्फ दूसरों के कल्याण के लिए करता है उसके सभी कर्म विलीन हो जाते हैं|
विलीन का अर्थ जैसा हम जानते हैं एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में घुल जाना, मिल जाना आदि| जैसे चीनी को जब पानी में घोला जाता है तो चीनी लुप्त हो जाता है|
यहाँ कर्म के विलीन होने की बात की गई है| यह कर्म का विलीन होना क्या है? और कर्म आखिर किसमे विलीन हो सकता है? इसको समझने के लिए हमे इस श्लोक और इसके पहले के सभी ७ श्लोकों को ध्यान से पढना चाहिए| इसे जानकार ही हम कर्म और अकर्म की परिभाषा समझ सकते हैं|
कुछ करना या न करना कर्म या अकर्म नहीं है| वह कर्म जिसमे करने वाले का अपने लिए स्वार्थ निहित है कर्म कहलाता है | जब कोई मनुष्य बिना फल की इक्षा के कर्म करता है तो वह कर्म अकर्म कहलाता है| ऐसा कर्म करते हुए जब मनुष्य अपनी आत्मा में स्थित होकर परमात्मा में लीन हो जाता है तो वह परमात्म तत्व में लीन हो जाता है| इस अवस्था को ही कर्म का विलीन होकर अकर्म की अवस्था प्राप्त करना कहा गया है| कर्म जिसमे विलीन होता है वह स्वयं ब्रम्ह है|