अध्याय4 श्लोक24 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 24

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

संधि विच्छेद

ब्रम्ह-अर्पणं ब्रम्ह हविः ब्रम्ह अग्नौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।
ब्रम्ह एव तेन गन्तव्यं ब्रम्ह कर्म समाधिना ॥

अनुवाद

ब्रम्ह ही यज्ञ पात्र है, ब्रम्ह ही हवन है, ब्रम्ह ही यज्ञकर्ता और ब्रम्ह ही आहुति ग्रहण करने वाला अग्नि है| ब्रम्ह में लीन योगी द्वारा प्राप्त होने फल भी ब्रम्ह है|

व्याख्या

इस श्लोक से लेकर श्लोक #३४ तक यज्ञ की व्याख्या की गई है| इस पहले ही श्लोक में भगवान ने यज्ञ के रूपक से भगवान की अन्तर्निहित शक्ति ब्रम्ह की सर्व व्यापकता की को इंगित किया है| भगवान ने कहा कि यज्ञ में यद्यपि विभिन्न निकाय दिखते हैं, जैसे यज्ञ का पात्र, हवन कुण्ड, हवन सामग्री(समिधा) और अग्नि लेकिन अंततः यह सब उसी एक ब्रम्ह के विभिन्न रूप है| और इस यज्ञ का गंतव्य(फल) भी ब्रम्ह ही है|
इस प्रकार ब्रम्ह सर्व व्यापक है, अंदर और बाहर ब्रम्ह ही है| आरंभ भी ब्रम्ह है और गंतव्य भी ब्रम्ह | एक प्रकार से ऊपर का श्लोक सनातन धर्म के एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत, अद्वैत का प्रतिपादन करता है |