अध्याय4 श्लोक25,26 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 25-26

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥

संधि विच्छेद

देवम् एव अपरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रम्ह अग्नौ एव अपरे यज्ञं यज्ञेन् एव उपजुह्वति
श्रोत्रा अदीन इन्द्रियाणि अन्ये संयम अग्निषु जुह्वति
शब्द अदीन विषयान् अन्य इन्द्रिय अग्निषु जुह्वति

अनुवाद

कुछ योगी देवताओं [उपयुक्त अनुष्ठान कर] देवताओं की उपासना रूपी यज्ञ(देव यज्ञ) करते हैं| अन्य [योगी] ब्रम्ह रूपी अग्नि में अपनी आत्मा [रूपी हवन] को समर्पित करके [ब्रम्ह] यज्ञ करते हैं| कुछ [योगी] कर्ण [नेत्र,नाक,जिव्हा, त्वचा] आदि इन्द्रियों को संयम रूपी अग्नि में अर्पित करते हैं| वही अन्य [योगी] शब्द [स्वाद,दृश्य, गंध,स्पर्श] आदि विषयों को इन्द्रिय रूपी अग्नि में अर्पित करते हैं|

व्याख्या

इन श्लोकों से आगे श्लोक #३४ तक भगवान श्री कृष्ण ने विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया है| ऊपर के दो श्लोकों में निम्न यज्ञों को स्पस्ट किया गया है

१. देव यज्ञ
विधि पूर्वक देवी और देवताओं की साधना एक यज्ञ है | इस यज्ञ को शास्त्रों में देव यज्ञ के रूप में जाना जाता है| जैसा कि अध्याय ३(#१०-१२) में वर्णित है देवता मनुष्यों के अभिभावक हैं जो मनुष्यों के लिए भौतिक पदार्थों की पूर्ति करते हैं और यज्ञ द्वारा मनुष्य देवताओं की साधना करते हैं| देवताओं की साधना मनुष्यों के सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और जीवन सुखमय होता है|

२ ब्रम्ह यज्ञ
यह सबसे उत्तम प्रकार का यज्ञ है| जब भगवान का भक्त परमात्मा में अपने आप को पूर्ण रूप से अर्पित कर लेता है तो वह परमात्मा के साथ पूर्ण रूप से एकीकर हो जाता है| श्लोक में इस तथ्य को प्रस्तुत करने के लिए रूपक का प्रयोग किया गया है| ब्रम्ह(परमात्मा) को अग्नि का रूपक और आत्मा को हवन का रूपक दिया गया है| भगवान के प्रति अटूट भक्ति ब्रम्ह यज्ञ की श्रेणी में आता है|

३ तप यज्ञ
अपनी इन्द्रियों पर संयम स्थापित करके iइन्हें ईश्वर की ओर प्रेरित करना भी एक प्रकार का यज्ञ है| इसे तप यज्ञ के रूप में जाना जाता है| तपस्या, उपवास, आत्म संयम इस यज्ञ की श्रेणी में आते हैं| तप यज्ञ से मनुष्य शारीरिक और मानसिक रूप से पवित्र हो जाता है और इस भौतिक शरीर में ही अपार अध्यात्मिक शक्तियों का स्वामि होकर परम शांति प्राप्त करता है|

इस श्लोक में भी रूपक अलंकार का प्रयोग किया गया है| संयम को अग्नि का और इन्दिर्यों को हवन का रूपक लिया गया है| इसी प्रकार भौतिक विषयों के लिए इन्द्रियां अग्नि का रूपक हैं|