अध्याय4 श्लोक27 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 27

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥

संधि विच्छेद

सर्वाणि इन्द्रिय कर्माणि प्राण कर्माणि च अपरे ।
आत्म संयम योग अग्नौ जुह्वति ज्ञान दीपिते ॥

अनुवाद

अन्य [योगी] आत्म संयम योग रूपी अग्नि में इन्द्रियों और प्राण की क्रियाओं की आहुति देते हैं और [आत्म] ज्ञान से प्रकाशित होते है(सिद्धि प्राप्त करते हैं)|

व्याख्या

आत्म संयम भी एक प्रकार के यज्ञ होता है और ऊपर के श्लोक में इसी यज्ञ का वर्णन है| आत्म संयम से आत्म ज्ञान(अथवा अध्यात्मिक सिद्धि) प्राप्त होती है|
जब कोई मनुष्य अपनी सभी कर्म इन्द्रियों और प्राण इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेता है तो फलस्वरूप वह अपर सिद्धि का स्वामि होता है| आत्म संयम को अग्नि का रूपक मानकर इसमे सभी कर्म और प्राण क्रियाओं को अर्पित करने को आत्म संयम यज्ञ कहते हैं|
जैसा हम जानते हैं, हमारे शरीर में ५ ज्ञान इन्द्रियां और ५ कर्म इन्द्रियां होती है| हर ज्ञान और कर्म इन्द्रिय के अपने अपने कार्य होते हैं सारांश इस प्रकार है

ज्ञान इन्द्रियां और उनके कार्य

1. आंख -- देखना
2. कान -- सुनना
3. नाक -- सूंघना
4.जीभ(जिव्हा) और - चखना
5.त्वचा – स्पर्श करना

कर्म इन्द्रियां और उनके कार्य
-------------------------------
1. कंठ-- बोलना
2. हाथ—श्रम करना
3. पैर-- चलना
4. जनेन्द्रिय -- प्रजनन
5.गुदा -- उत्सर्जन

हमारे शरीर में पांच प्राण होते हैं

पांच प्राण

1.व्यान : व्यान का अर्थ जो चरबी तथा मांस का कार्य करती है।
2.समान : समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
3.अपान : अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
4.उदान : उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में होती है।
5.प्राण : प्राण वायु हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु मूलत: खून में होती है।

इन प्राण से सम्बंधित तीन क्रियाएँ होती हैं
1.पूरक
2.कुम्भक और
3.रेचक।

जब कोई मनुष्य अपने सबी सभी इन्द्रिय और प्राण क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण कर लेता है वह आत्म संयम यज्ञ को पूरा करता है और अपार अध्यात्मिक शक्तियों का स्वामि होता है|