अध्याय4 श्लोक30,31 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 30-31

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ ॥

संधि विच्छेद

सर्वे अपि एते यज्ञ विदः यज्ञ क्षपित कल्मषाः ।
यज्ञ-शिष्ट अमृत-भुजः यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ ॥

अनुवाद

यह सभी [साधक] जो यज्ञ के तत्व को जानते हैं वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं| यज्ञ के प्रसाद रूपी [पवित्र] अमृत का पान करने वाले [मनुष्य] वे परम ब्रम्ह की अवस्था प्राप्त करते हैं|

व्याख्या

विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने ऊपर के श्लोक में यज्ञ के परम फल का वर्णन कर रहे हैं| भगवान ने कहा कि जो मनुष्य ऊपर वर्णित किसी भी यज्ञ को सफलता पूर्वक पूरा करता है वह कर्मो के सभी प्रतिक्रियाओं से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है| हमे विदित हो कि अध्याय ३ में भगवान ने यह स्पस्ट किया था कि इस संसार में सभी कर्म मनुष्य को कर्म फल से बांधते हैं सिवाय वह जो यज्ञ के रूप में किये जाते हैं;

Ch3:Sh9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥
यज्ञ के लिए किये गए कर्म के अतिरिक्त सभी अन्य कर्म मनुष्यों को कर्म के फल में बांधते हैं | इसलिए हे कुन्तीपुत्र ! [फल की ] आसक्ति का त्याग करके यज्ञ के निमित्त (भगवान विष्णु को समर्पित) कर्म करो |

यज्ञ के रूप में किये गए कर्म, मनुष्य को कर्मो के बंधन से मुक्त कर देता हैं| यज्ञ का फल अमृत के समान है जो मनुष्य को पवित्र कर देता है और अलौकिक शांति, सुख और ज्ञान प्रदान करता है|