अध्याय4 श्लोक31 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 31

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥

संधि विच्छेद

नायं लोको अस्ति अयज्ञस्य कुतो अन्यः कुरुसत्तम ॥

अनुवाद

हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ(अर्जुन)! यज्ञ न करने वाले के लिए तो इस लोक में (पृथ्वी पर) भी सुख संभव नहीं फिर [वैसे मनुष्य के लिए] परलोक कैसे सुखदायी हो सकता है?

व्याख्या

पिछले श्लोक में भगवान ने यज्ञ की उपयोगिता बताते हुए वर्णित किया कि यज्ञ मनुष्य को कर्मो के बंधन से मुक्त करते हैं और परम ब्रम्ह की अवस्था प्रदान करते हैं|

लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात भगवान ने कहा जो इस श्लोक में कहा कि यज्ञ सांसारिक सफलता की भी कुंजी हैं| और बिना यज्ञ के कोई मनुष्य इस लोक में न तो सफलता प्राप्त कर सकता है और न ही सुखी हो सकता है उसके लिए परलोक में सुखी होना तो और भी दुर्लभ है|

हमे ज्ञात हो कि श्लोक #२४ से श्लोक #२९ तक विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया गया, जैसे देव यज्ञ, ब्रम्ह यज्ञ, द्रव्य यज्ञ(दान), तप यज्ञ(तपस्या), अष्टांग योग, प्राणायाम, ज्ञान यज्ञ(अध्ययन और शिक्षा), आत्म संयम आदि| अगर कोई मनुष्य न स्वास्थ्य में उत्तम हो, ना शिक्षित हो, न दान और सेवा कर सके, न आत्म संयमी हो, जो न मिहनत कर सके(तप यज्ञ) फिर वैसे मनुष्य के लिए इस लोक में भी सुख कैसे मिल सकता है| हम इस लोक में भी सफल होने के लिए मनुष्य में कोई न कोई गुण तो चाहिए और वह गुण किसी न किसी यज्ञ से ही प्राप्त हो सकता है|