अध्याय4 श्लोक32 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 32

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥

संधि विच्छेद

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान् विद्धि तान् सर्वान् एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥

अनुवाद

इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित भिन्न भिन्न कर्मावलम्बियों (भिन्न भिन्न स्वभाव के मनुष्यों) के लिए विभिन्न प्रकार के यज्ञ विस्तार से कहे गए | यज्ञों के इस रहस्य को जानकर [और इनका पालन करके] तुम [कर्मो के बंधन से] सर्वथा मुक्त हो जाओगे |

व्याख्या

श्लोक #२४ से शोक #२९ तक विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया गया| लेकिन कोई यह प्रश्न भी पूछ सकता है कि विभिन्न प्रकार के यज्ञों की क्या आवश्यकता है? इस प्रश्न के उत्तर भगवान ने इस श्लोक में दिया है| भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि चूँकि विश्व में विभिन्न आचरण और स्वभाव के मनुष्य हैं इसलिए वे विभिन्न प्रकार से कर्मो में लिप्त होते हैं और इसलिए विभिन्न यज्ञो का संपादन करते हैं| जो मनुष्य ज्ञान विज्ञान में रूचि रखते हैं वे ज्ञान यज्ञ का साधन करते हैं| जो सन्यास की भावना रखते हैं वे तप और आत्म संयम यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं| कुछ दूसरे योगी योग आसान और प्राणायाम का मार्ग अपनाते हैं| वही दूसरे जो सामर्थ्यवान हैं और मनुष्यों की सेवा करना चाहते हैं वे दान रूपी यज्ञ करते हैं|

इस प्रकार अगर ईश्वर में सच्ची श्रधा हो तो अपने स्वभाव के अनुसार मनुष्य किसी भी उत्तम यज्ञ का साधन कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है|