अध्याय4 श्लोक33 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥

संधि विच्छेद

श्रेयान् द्रव्यमयात् यज्ञात् ज्ञान यज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्मा अखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥

अनुवाद

हे परन्तप(अर्जुन)! द्रव्य यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ हैं| क्योंकि अंततः सभी कर्म और अन्य [क्रियाएँ] ज्ञान पर ही जाकर समाप्त होते हैं|

व्याख्या

पिछले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने यह बताया कि श्लोक #२४ से श्लोक #२९ तक वर्णित सभी प्रकार के यज्ञ मनुष्यों को मोक्ष प्रदान करने वाले हैं, लेकिन फिर उनमे से कुछ यज्ञ हैं जो दूसरों से उत्तम हैं|
श्लोक #२४ से श्लोक#२९ तक वर्णित सभी यज्ञों को दो श्रेणी में विभाजित किया जा सकता है
१. ज्ञान प्रधान यज्ञ
२. द्रव्य प्रधान यज्ञ

भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया किया वैसे यज्ञ जो ज्ञान प्रधान है द्रव्य प्रधान यज्ञों से उत्तम हैं| ज्ञान प्रधान यज्ञ वह हैं जो मनुष्य द्वारा सत्य और ज्ञान के प्रकाश में किये जाते हैं और जिसमे आत्मा, मस्तिस्क और मन को ईश्वर में स्थापित किया जाता है इस श्रेणी में निम्न यज्ञों को रखा जा सकता है
१. ब्रम्ह यज्ञ(ईश्वर की अटूट भक्ति)
२. ज्ञानार्जन और ज्ञान का प्रसार
३. राजयोग(ध्यान)
४. तपस्या(सांसारिक तृष्णा और मोह का त्याग

द्रव्य यज्ञ में उन यज्ञो को रखा जा सकता है जो भौतिक पदार्थों पर निर्भर हैं, जैसे
१. देव यज्ञ(देवताओं की विभीन प्रकार से साधना)
२. दान
३. उपवास
४. शारीरिक योग (योगासन या हठ योग)

हालाकि सभी यज्ञ उत्तम हैं लेकिन फिर भी ज्ञान यज्ञ द्रव्य यज्ञ से उत्तम होते है क्योंकि ज्ञान सभी कर्मो का सर्वोत्तम फल है| सभी साधना, तपस्या आखिरकार ज्ञान में ही समाहित होते हैं|