अध्याय4 श्लोक34 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 34

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥

संधि विच्छेद

तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्व दर्शिनः ॥

अनुवाद

[उस परम] ज्ञान को जानने के लिए किसी तत्वदर्शी(ज्ञानी) की शरण में जाओ | उनकी [सच्ची] सेवा और आदर करके नम्रता पूर्वक उनसे प्रश्न करो | तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर वह [महात्मा](सच्चा गुरु) तुम्हे [ निश्चय ही ईश्वरीय] तत्त्व का ज्ञान देंगे |

व्याख्या

पिछले श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने सभी प्रकार के यज्ञों और उनकी उपयोगिता का वर्णन किया और यह आदेश दिया कि मनुष्यों को अपनी रूचि के अनुसार उचित यज्ञ का चयन करके उन्हें साधने के प्रयास करना चाहिए| यज्ञ के अनुपालन से मनुष्य कर्मो के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं|
लेकिन यज्ञ को जानना और उनका अनुपालन सभी के लिए आसान नहीं क्योंकि ईश्वरीय तत्व का ज्ञान सबसे के संभव नहीं| लेकिन हर युग और काल में बहुत ऐसे महात्मा होते हैं जो कठिन साधना से सिद्धि प्राप्त करते हैं| अगर कोई मनुष्य सच्ची श्रधा से उनकी शरण में जाए उनकी सेवा करते नम्रतापूर्वक उनसे सत्य को जानने का प्रयास करे तो उनकी सेवा से प्रसन्न होकर वैसे महात्मा सत्य और धर्म का उचित ज्ञान कराएँगे|

यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि भगवान ने यह कतई नहीं कहा कि गुरु के सिवाय ज्ञान प्राप्ति संभव नहीं लेकिन हाँ यह कहा कि चूँकि सच्चा गुरु साधना पूर्वक पहले ही सत्य की खोज कर चूका है इसलिए दूसरा मनुष्य उनकी सच्चे गुरु से ज्ञान प्राप्त लाभान्वित हो सकता है| दूसरी बात यह भी है कि भगवान ने साफ़ साफ़ ऐसे गुरु का वर्णन किया जो तत्व दर्शी हो| आँख मूंदकर किसी भी व्यक्ति को जो साधू में चोगे में हो उसे गुरु नहीं मान लेना चाहिए| ढोंगी गुरुओं से सावधान रहना चाहिए|