अध्याय4 श्लोक36,37 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 36-37

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥

संधि विच्छेद

अपि चेत् असि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेन् एव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
यथा एधांसि समिद्धः अग्निः भस्मसात् कुरुते अर्जुन ।
ज्ञान अग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥

अनुवाद

यदि तुम सभी पापियों से भी अधिक पाप किया है तब भी ज्ञान की नौका में सवार होकर निःसंदेह तुम पाप के समुद्र को पार कर जायोगे| जैसे प्रज्वल्लित अग्नि इंधन को जलाकर भस्म कर देता है वैसे ही ज्ञान भी पाप युक्त कर्मो भस्म कर देता है|

व्याख्या

इन श्लोकों से प्रारंभ करके अध्याय के अंत तक ज्ञान की महिमा का वर्णन किया गया है|
इन दो श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने दो उदाहरणों से ज्ञान की महानता की व्याख्या की है| ज्ञान उस नौका के समान है जिसपर सवार होकर एक ज्ञानी ही नहीं बल्कि एक पापी भी पाप के समुद्र को पार कर सकता है| वहीँ दूसरे श्लोक में भगवान ने ज्ञान की तुलना अग्नि से की है| अग्नि को सबसे पवित्र माना जाता है| कोई भी पदार्थ चाहे वह उत्तम या या न्यूनतम अग्नि में जलने के बाद पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार जो भी मनुष्य ज्ञान को धारण करता है उसके सभी पाप जलकर भस्म हो जाते हैं|

यहाँ पर कोई प्रश्न पूछ सकता है तो क्या पापियों को उसके कर्म का फल नहीं भुगतना पडता| उत्तर यह है कि कर्म का फल तो सब को भुगतना पड़ता है लेकिन इस पल से कोई मनुष्य ज्ञान को धारण करता है उसी पल से उसके कर्म पवित्र हो जाते हैं, एक समय के बाद धीरे धीरे वह एक पवित्र मनुष्य हो जाता है| इसलिए ऊपर के श्लोक में कहा गया है कि चाहे कोई भी हो, अगर वह ज्ञान को धारण करता है तो वह पापों से मुक्त हो ही जाता है|