अध्याय4 श्लोक38 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥

संधि विच्छेद

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते ।
तत्-स्वयं योग संसिद्धः कालेन आत्मनि विन्दति ॥

अनुवाद

निःसंदेह इस संसार में ज्ञान के समान [आत्मा को] पवित्र करने वाला कुछ और नहीं है | [दृढता से] योग में प्रयास रत [योगी] एक समय के बाद इस [पवित्र] ज्ञान को स्वयं ही अपने आत्मा में सिद्ध कर लेता है (अर्थात ज्ञान प्राप्त कर लेता है|

व्याख्या

पिछले श्लोक से आगे ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि इस पुरे जगत में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कुछ नहीं है| ज्ञान मनुष्य के सभी पापों को नष्ट करता है| अगर एक पापी भी आध्यात्मिक ज्ञान को धारण कर ले तो एक धीरे धीरे उसके सभी पाप भस्म हो जायेंगे|

इस श्लोक के दूसरी पंक्ति में इस ज्ञान को प्राप्त करने का साधन भी बताया गया है| भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य निष्ठापूर्वक किसी भी योग जैसे भक्ति, ज्ञान, कर्म अथवा राजयोग की साधना करता है तो एक समय के पश्चात वह अलौकिक आत्म ज्ञान स्वयं ही प्राप्त करता है| इसलिए मनुष्य को अपने पवित्र कर्मो पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि अगर उसके कर्म पवित्र हैं और वह किसी भी योग का निरंतर दृढ़ता से अभ्यास करता है तो वह निश्चय ही आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है| उसको ज्ञान प्राप्त करने में कितना समय लगता है यह उसकी योग की साधना पर निर्भर है| जिसकी साधना प्रगाढ़ है वह जल्दी ज्ञान प्राप्त करता है, किसी दूसरे को कुछ ज्यादा समय लग सकता है, आदि|