अध्याय4 श्लोक41 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 41

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌ ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥

संधि विच्छेद

योग सन्यस्त कर्माणं ज्ञान सञ्न्नि संशयम्‌ ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥

अनुवाद

हे धनञ्जय ! जिसने कर्मफल की सभी आसक्तियों का त्याग करके अपने कर्मो को परमात्मा में समर्पित कर दिया है(अर्थात कर्मयोग का पालन किया है), जिसके सभी संशय ज्ञान [की अग्नि से] नष्ट हो गए हों, और जो अपनी अन्तःकरण में स्थित हो गया हो, वैसे मनुष्य को कर्म नहीं बांधते |

व्याख्या

पिछले दो अध्यायों में भगवान श्री कृष्ण ने कर्मयोग,ज्ञानयोग और आत्म संयम का अलग अलग वर्णन किया | निःसंदेह योग के यह सभी मार्ग मनुष्य को मुक्ति प्रदान करने वाले हैं| लेकिन अगर कोई मनुष्य कर्मयोग में ज्ञान और आत्म संयम को सम्मिलित कर ले तो उसका मार्ग अत्यंत सरल और सिद्धि निश्चित हो जाती है| एक साधारण मनुष्य के द्वार किया गया कर्म कर्म तो अच्छा या बुरा भी हो सकता है, लेकिन अगर वैसे कर्मयोगी को सत्य का भी ज्ञान हो तो उसका कर्म हमेशा सही ही होगा और मुक्ति तक का उसका रास्ता आसान हो जायेगा|

वैसे भी मनुष्य किसी भी योग से प्रारंभ करे एक बिंदु पर आकर सभी एक दूसरे के साथ मिल जाते हैं| कोई मनुष्य आत्म संयम रखकर कर्म योग से प्रारंभ करे तो कुछ समय के पश्चात उसे सत्य का ज्ञान अवश्य हो जाता है, वैसे ही कोई ज्ञान प्राप्ति का मार्ग चयन करे तो उसे कर्म तो करना ही पडता है| वह अगर आत्म संयम रखे तो उसके ज्ञान प्राप्ति का मार्ग सरल हो जायेगा| इस सभी मार्गो में निश्चय ही ईश्वर में विश्वास तो अत्यंत आवश्यक है|

एक सच्चे योगी के लिए कर्म,ज्ञान और भक्ति के सभी मार्गों के चयन का रास्ता खुला रखना चाहिए और भ्रम से मुक्त होकर ईश्वर के मार्ग में प्रसस्त होना चाहिए|