अध्याय4 श्लोक42 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4 : ज्ञान योग

अ 04 : श 42

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥

संधि विच्छेद

तस्मात् अज्ञान संभूतं हृत्-स्थं ज्ञान असिन आत्मनः ।
छित्वा एनं संशयं योगं अतिष्ठ उतिष्ठ भारत ॥

अनुवाद

इसलिए हे भरतवंशी(अर्जुन) ! अपने हृदय में अज्ञानजनित(अज्ञानता से उत्पन्न हुए) भ्रम को ज्ञान (विवेक) रूपी तलवार से काट डालो(अर्थात भ्रम का त्याग करो), और अपने कर्मो को परमात्मा में समर्पित करके अपने कर्तव्य पालन के लिए खड़ा हो|

व्याख्या

पिछले दो अध्यायो में कर्म, आत्मा और ज्ञान का रहस्य बताने की बाद भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को इस श्लोक में याद दिलाते हैं कि उसका भ्रम अज्ञानता के कारण है| उसे अपने भ्रम का त्याग करके अपने कर्तव्य पालन करना चाहिए|

हमे ज्ञात हो कि श्रीमद भगवद गीता में अर्जुन और भगवान श्री कृष्ण के बीच में वार्तालाप शुरू ही तब हुआ जब अर्जुन ने युद्ध करने से इनकार कर दिया | अर्जुन के मन में युद्ध की सार्थकता को लेकर कई प्रकार के संशय उत्पन्न हुए | भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के उन सभी संशयों को निवारण किया औरु यह स्पस्ट किया कि उसका भ्रम निराधार है और अज्ञानता के कारण उत्पन्न हुआ है |
अब चूँकि अर्जुन को जीवन, कर्तव्य और आत्मा के सभी रहस्यों का वर्णन कर दिया गया है, अर्जुन को चाहिए कि वह अपने भ्रम को त्याग कर अपने कर्तव्य पालन के लिए खड़ा हो| एक क्षत्रिय(सैनिक) होने के नाते धर्म के लिए युद्ध करना उसका स्वाभाविक कर्तव्य है| इसलिए उसे उस कर्तव्य का भली भांति पालन करना चाहिए|