अध्याय5 श्लोक12 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 12

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥

संधि विच्छेद

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिम् आप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तः निबध्यते ॥

अनुवाद

जो इश्वर में [सच्ची] श्रधा रखकर और फल की सभी इक्षाओं को त्यागकर कर्म करते है वे परम शांति प्राप्त करते है| वहीँ दुसरे जिनकी ईश्वर में श्रधा नहीं और जो फल की कामना से कर्म करते हैं वह [कर्म के चक्र में ] बंध जाते हैं|

व्याख्या

पिछले श्लोको में भगवान ने कर्मयोग की सन्यास के ऊपर श्रेष्ठता का वर्णन किया | कर्म तो सभी करते हैं| बल्कि सभी जीव प्रकृति के द्वारा आरोपित गुणों के कारण प्रतिपल कर्म करने को बाध्य हैं(३.३). लेकिन कर्म करना अपने आप में मोक्ष प्रदान करे यह निश्चित नहीं | कर्म कैसे और किस भावना के साथ की जाती है उससे उसके फल का निर्धारण होता है| इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कर्म योग के उसी रहस्य का वर्णन कर रहे हैं| कर्म के परिणाम दो प्रकार के होते हैं| एक परम शांति की ओर ले जाता है और दूसरा मनुष्य को भौतिक जगत में भटका देता है| भगवान ने यह स्पस्ट किया की जो मनुष्य फल की आकांक्षाओं का त्याग कर अपने कर्म को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है वह इसी जीवन में परम शांति को प्राप्त होता है| दुसरे वे लोग जो मात्र अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए कर्म में संलग्न होते हैं वह दुख और सुख के चक्र में फंस जाते हैं|