अध्याय5 श्लोक13 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥

संधि विच्छेद

सर्व कर्माणि मनसा संन्यस्या अस्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न एव कुर्वन् न कारयन्‌ ॥

अनुवाद

जो अपनी भौतिक प्रकृति को नियंत्रण में करके (इन्द्रियों को वश में करके) अपने मन को संसार के मोह से मुक्त कर लेता है वह इस संसार में [सब कुछ करते हुए भी] न कुछ करता और न ही किसी कार्य का हेतु होता है| वैसा योगी नौ द्वार के इस शरीर रूपी नगर में सुख से निवास करता है|

व्याख्या

बहुत सुन्दर श्लोक और इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने एक साथ कर्म योग के पालन की कई रहस्यों का उद्घाटन किया है| पिचले श्लोक में श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया था कि जो फलों की इक्षा का त्याग करके अपने कर्मो को ईश्वर में समर्पित करता है वह कर्म के बंधन से मुक्त रहता है |
लेकिन फलों का त्याग कहना जितना आसान है करना उतना आसान नहीं| सत्य तो यह है कि फल की इक्षा ही मनुष्य को कर्म की प्रेरणा प्रदान करता है फिर उस फल का त्याग मनुष्य करे भी तो कैसे?
इस श्लोक में उसी का निवारण बताया है भगवान ने| श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि फलो के मोह से मुक्त होने के निम्न उपाय है
१. इद्रियों पर नियंत्रण
२. मन से संसार के मोह का त्याग

हमे यह ज्ञात हो कि भौतिक शरीर में यह इन्द्रियां और मन ही हैं जो मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं पर निर्भरता थोपती हैं| शरीर की इन्द्रियां मनुष्य को रूप, रस, स्वाद आदि जैसी वस्तुओं से बांधती हैं| वहीँ मनुष्य का मन नाना प्रकार की इक्षाओं लो जन्म देता है|
इन्द्रियों को आत्म संयम से वश में करके इसे अंतर्मुखी किया जा सकता है| वहीँ मन को ज्ञान और भक्ति से शुद्ध किया जा सकता है| श्रीमद भगवद गीता में यह कई स्थानों पर स्पस्ट किया गया है कि मनुष्य का यह सोचना की वह एक शरीर है भातिक जगत से बंधन का एक मूल कारण हैं| सत्य यह है कि मनुष्य एक भातिक इकाई मात्र नहीं है बल्कि यह शरीर प्रकृति का एक हिस्सा है और हम वास्तव में निर्मल और अनंत आत्मा है| इस प्रकार सत्य का ज्ञान होने से मन का भ्रम समाप्त होता है और फिर भौतिक जगतसे मोह भी|
इसी श्लोक में फिर भगवान ने यह स्पस्ट किया कि जब शरीर और मन से जब मनुष्य इस प्रकृति की निर्भरता से मुक्त हो जाता है तब वह कर्म करता हुआ भी कर्म नहीं करता बल्कि एक सन्यासी हो जाता है| इस प्रकार एक सच्चा कर्म योगी एक सच्चा सन्यासी भी होता है|
यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि भगवान श्री कृष्ण ने इस शरीर की तुलना नगर से की है| इस शरीर रूपी नगर में आत्मा का निवास होता है| जिस प्रकार एक नगर में कई इकाईयां होती हैं, इस शरीर में भी कई अंग, और इकाईयां हैं| जिस प्रकार एक शहर को सुचारू रूप से चलाने के लिए शहर की सभी इकायिओं को मिलकर कार्य करना पडता है इसी प्रकार शरीर की अगर सभी इकाईयां सुचारू रूप से कार्य करेंगी तब ही आत्मा इस शरीर में सुख से रह सकता है| अतः शरीर को स्वस्थ रखना मनुष्य का एक परम कर्तव्य भी है| बिना स्वस्थ शरीर के सुख की प्राप्ति संभव नहीं|