अध्याय5 श्लोक18 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥

संधि विच्छेद

विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि च एव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥

अनुवाद

एक सभ्य पुरुष(विवेकवान पुरुष) एक ज्ञानी कों, विनय युक्त पुरुष कों, गाय कों, हाथी कों, कुक्कुर(कुत्ते) कों, और कुक्कुर भुक्ता(कुक्कुर का मांस खाने वाले ) सभी कों एक समान दृष्टी से देखता है(अर्थात सबको समान समझता है)

व्याख्या

ऊपर का श्लोक अध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी एक बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है| इस श्लोक में भगवान ने यह स्पस्ट किया है कि मनुष्य ही नहीं बल्कि सभी जीव समान है| अलग अलग आकार और रूप से दिखने वाले जीवों का शरीर शरीर के स्तर पर भिन्नता हो सकती है परन्तु आत्मा के स्तर पर सभी जीव समान होते हैं | सभी आत्माओं में उसी परमात्मा की शक्ति विद्यमान होती है|
जैसा भगवान ने अध्याय ६ में कहा है
"एक सच्चा योगी(योग युक्त आत्मा) सभी जीवो में मुझे देखता है और मुझमे सभी जीवों को देखता है | इस प्रकार निःसंदेह वह [योगी] सर्वत्र मेरा ही दर्शन करता है|"(Ch6:29)
जो मनुष्य इस सत्य को जानकार सभी मनुष्यों और जीवों के साथ समानता का व्यवहार करता है वह सच्चा विवेकवान और ज्ञानी है| हमे किसी भी आधार पर मनुष्यों के बीच भेदभाव नहीं करना चाहिए| ऐसा करना अपराध ही नहीं भगवान श्री कृष्ण का अपमान है|