अध्याय5 श्लोक21 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥

संधि विच्छेद

बाह्य स्पर्शेष्व असक्त आत्मा विन्दति आत्मनि यत् सुखम् ।
स ब्रह्मयोग युक्तात्मा सुखम अक्षयम् अश्नुते ॥

अनुवाद

बाह्य विषयों की आसक्ति (सांसारिक वस्तुओं के मोह) को त्यागकर वह मनुष्य अपने अन्तः करण के सुख में विभोर हो जाता है| तदन्तर [सच्चिदानन्द] ब्रम्ह का निरंतर ध्यान करता हुआ वह [साधक] अक्षय (कभी न समाप्त होने वाला) आनंद को प्राप्त करता है|

व्याख्या

पिछले तीन श्लोकों में भगवान ने ज्ञान की परम अवस्था का वर्णन किया है| इसके पहले श्लोक में भगवान ने बताया कि ब्रम्ह की पवित्र अवस्था का के आनंद का स्वाद चखने वाले साधक के लिए वाह्य सूख बहुत छोटे लगने लगते हैं और वह स्वतः ही उसका सांसारिक भोग विलास से मोह भंग हो जाता है|

इस श्लोक में उसी विषय का आगे वर्णन करते हुए भगवान श्री कृष्ण यह स्पस्ट करते हैं कि ब्रम्ह की अवस्था इतनी आनंदायी होती है कि उस अवस्था में पहुँचने वाला साधन आनंद विभोर हो जाता है| फिर उसका धयान परम आनंद प्रदान करने वाला परमात्मा में तदन्तर स्थिर हो जाता है| वैसा मनुष्य अक्षय आनंद को प्राप्त करता है|