अध्याय5 श्लोक25 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 25

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥

संधि विच्छेद

लभन्ते ब्रम्ह निर्वाणम् ऋषयः क्षीण कल्मषाः ।
छिन्न द्वैधा यत् आत्मानं सर्व भूत हिते रताः ॥

अनुवाद

जिसकी सभी संशय [तत्व ज्ञान द्वारा] नष्ट हो गए हैं, जो अपनी अंतःकरण में स्थित हो गया है और जो सभी जीवों के कल्याण के लिए तत्पर रहता है, वह [कर्म जनित] सभी पापों से मुक्त हो जाता है और ब्रम्हलीन होकर मोक्ष प्राप्त करता है|

व्याख्या

इस श्लोक में भगवान कर्मयोग के व्यावहारिक स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं जिससे कोई भी व्यक्ति मोक्ष की परम अवस्था को प्राप्त कर सकता है| इसमे भगवान ने तीन तथ्यों का वर्णन किया ऐ १. ईश्वर में अटूट श्रधा २. अंतर्मुखी होना ३ सभी जीवों के प्रति सेवा का भाव|
मनुष्य को सबसे पहले अपने मन से संशय को नष्ट करना चाहिए, क्योंकि संशय से युक्त मनुष्य का न तो साधना और न ही कर्म सिद्ध होता है| भक्ति और ज्ञान सत्य को जानने के दो उत्तम साधन हैं|
संशय उक्त होकर फिर मनुष्य को अपने अंतर्मुखी होकर अपनी अंतःकरण में स्थित होने का प्रयास करना चाहिए और अपनी कर्मो को जीवों को सेवा में अर्पित करना चाहिए| इस प्रकार मनुष्य अपने कर्म जनित पापों से मुक्त होकर अंततः ब्रम्ह की अवस्था प्राप्त कर सकता है| ब्रम्हलीन मनुष्य स्वतः मोक्ष को प्राप्त होता है