अध्याय5 श्लोक2 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 02

श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥

संधि विच्छेद

श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगः च निःश्रेयस करौ उभौ ।
तयः तु कर्म सन्न्यासात् कर्म योगो विशिष्यते ॥

अनुवाद

श्री भगवान बोले: सन्यास और कर्म योग दोनों ही श्रेयकारी (कल्याणकारी) हैं | परन्तु इन दोनों में कर्मयोग सन्यास से उत्तम हैं|

व्याख्या

अर्जुन ने सन्यास और कर्मयोग को लेकर भ्रम उत्पन्न हुआ और इसलिए उसने श्री कृष्ण से मार्ग दर्शन करने का अनुरोध किया|
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्पस्ट रूप से उस प्रश्न का उत्तर दिया| पहले तो भगवान ने यह स्पस्ट किया सन्यास और कर्म योग दोनों ही मनुष्य के लिए श्रेयकारी हैं और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं| लेकिन कर्म योग कर्म सन्यास से उत्तम हैं|

हमे ज्ञात हो कि सन्यास उन सिधान्तों में से एक है जिसके बारे में लोगों को कई प्रकार की भ्रांतियां है| कई लोग यह समझते हैं कि समाज, परिवार और कर्तव्यों का त्याग सन्यास है, जो गलत है| इस श्लोक के आगे भगवान ने सन्यास को सही रूप में व्याख्या की है|