अध्याय5 श्लोक3 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 03

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षमति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥

संधि विच्छेद

ज्ञेयः स नित्य संन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षषति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते ॥

अनुवाद

हे अर्जुन ! जो [मनुष्य] न किसी से द्वेष करता है और न ही [अपने कर्मो के फल] की आकांक्षा करता है, जान लो कि वह [कर्मयोगी] तो सदा सन्यासी ही है | सभी द्वंद्वों (जैसे राग-द्वेष, लाभ-हानि, सुख-दुःख आदि) से मुक्त वह [कर्मयोगी] कर्म के सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है|

व्याख्या

ऊपर का श्लोक सन्यास के विषय में सबसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है, जो सन्यास की परिभाषा सिद्ध करने के साथ साथ कर्म योग और सन्यास के बीच सम्बन्ध को स्थापित करता है | यह अक्सर पाया गया है कि सन्यास के बारे में लोगों में मन में कई प्रकार की

अर्जुन को सन्यास और कर्मयोग के सम्बन्ध में भ्रम उत्पन्न हुआ और अर्जुन ने भगवान से इसे स्पस्ट करने का आग्रह किया| भगवान ने इसके पहले श्लोक में यह स्पस्ट किया कि सन्यास और कर्म योग दोनों ही श्रेष्ठ हैं परन्तु उनमे से कर्मयोग उत्तम है| इस श्लोक में भगवान उस कथन को सिद्ध कर रहे हैं कि क्यों कर्म योग उत्तम है|

भगवान ने कहा कि एक मनुष्य जो ईश्वर में श्रधा रखकर बिना किसी राग-द्वेष और कर्म फल की लालसा किए कर्म करता है वह वास्तव में सन्यासी ही है| एक गृहस्थ या साधारण मनुष्य भी जो ईश्वर में श्रधा रखकर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करता है वह भी सन्यासी के समान है| इसलिए कर्म योग में सन्यास अपने आप ही शामिल है|

यहाँ पर कोई प्रश्न पूछ सकता है तो क्या सन्यास और कर्म योग समान है| उत्तर यह है कि नहीं समान तो नहीं है लेकिन सन्यास और कर्मयोग दोनों एक स्थान पर जाकर मिल जाते हैं| अन्तर इतना है कि दोनों मार्गों को साधने के तरीके अलग हैं| सन्यास का मार्ग कठिन है क्योंकि इसमे कठिन साधना, आत्म संयम और त्याग की आवश्यकता होती है |
जबकि कर्मयोग में मनुष्य ईश्वर में श्रधा रखकर अपने स्वभाव के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करता है | एक कर्म योगी अपने सभी कर्मो को भगवान श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित करके और कर्म फल के मोह का त्याग करके निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करटा है| इस प्रकार कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है

कर्म योग में सन्यास की साधना स्वयं ही हो जाती है|