अध्याय5 श्लोक4,5 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 04-05

साङ्ख्य योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥

संधि विच्छेद

साङ्ख्य योगौ पृथक् बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकम् अपि अस्थितः सम्यक् उभयोः विन्दते फलम्‌ ॥
यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तत् योगैः अपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥

अनुवाद

सांख्य और योग को अज्ञानी भिन्न मानते हैं न कि ज्ञानी | दोनों [सांख्य या योग] में से किसी [एक] में भी पूर्ण रूप स्थित मनुष्य दोनों(सांख्य और योग) के फल को प्राप्त करता है| सांख्य योगी जिस परम अवस्था को प्राप्त होते हैं [कर्म] योगी भी वही परम अवस्था प्राप्त करते हैं| सांख्य और योग एक ही हैं, जो इस सत्य को जानता है वही सच्चा ज्ञानी है|

व्याख्या

सन्यास और कर्म को लेकर उठे प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान श्री कृष्ण इन दोनों श्लोको में यह स्पस्ट कर रहे हैं कि सन्यास और कर्म दोनों मार्गों द्वारा प्राप्त होने वाला फल एक ही है | मनुष्य किसी भी मार्ग पर अगर निष्ठापूर्वक प्रयास करता है तो वह उसी एक परम फल को प्राप्त करता है| इसलिए एक ही फल देने के कारण कार्य रूप में दोनों में कोई भिन्नता नहीं है|

वैसे भी कोई भी सन्यास में कर्म और कर्म से सन्यास तो शामिल होता ही है| बिना कर्म के तो कोई भी सन्यास संभव नहीं और बिना कर्मो के फलों का त्याग किये कोई भी कर्म योग सिद्ध नहीं हो सकता| और जहाँ त्याग है वहाँ सन्यास है क्योंकि त्याग की अवस्था को ही सन्यास कहा जाता है|(अध्याय-१८श्लोक #२).

लेकिन जैसे कि इस अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने स्पस्ट किया कि हलाकि सन्यास और कर्मयोग दोनों ही उत्तम मार्ग हैं लेकिन फिर भी कर्मयोग सन्यास से उत्तम मार्ग है |