अध्याय5 श्लोक6 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 06

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥

संधि विच्छेद

सन्न्यासः तु महाबाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः ।
योग युक्तः मुनिः ब्रह्म न चिरेण अधिगच्छति ॥

अनुवाद

हे अर्जुन! [कर्म] योग के बिना सन्यास में सिद्धि कठिन है| [कर्म] योग में संलग्न मुनि(सिद्ध महात्मा) शीघ्र ही ब्रम्ह की परम अवस्था को प्राप्त करता है|

व्याख्या

सन्यास और कर्मयोग के बारे में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए इस अध्याय भगवान श्री कृष्ण ने बताया था कि दोनों कर्मयोग और सन्यास उत्तम है और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं, लेकिन कर्मयोग सन्यास से उत्तम है| इसका कारण बताते हुए श्लोक#३ में श्री कृष्ण ने स्पस्ट किया कि एक कर्मयोगी एक सन्यासी भी होता है क्योंकि वह अपने कर्मो के फल का त्याग करता है| इस श्लोक में उसी कर्मयोग की प्रधानता को और आगे बताया गया है| श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया है कि हालाकि सन्यास भी मोक्ष का एक साधन है लेकिन सन्यास अपने आप में एक कठिन मार्ग है| सन्यास को अगर कर्मयोग के साथ किया जाये तो यही सन्यास आसान हो सकता है|

यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि श्लोक में कर्मयोग शब्द का नहीं बल्कि सिर्फ योग शब्द का वर्णन है| आत्मा को परमात्मा से जोडने की विधि को योग कहा जाता है| हमारे शास्त्रों में सांख्य और योग दो सिद्धांतों का वर्णन है| किसी भी सत्य को को जानना सांख्य है| परमात्मा की प्राप्ति की क्रिया योग है| सन्यास और ज्ञान से सांख्य के भाग हैं और कर्म, भक्ति आदि योग के | ऊपर के श्लोक व्याख्या योग की सभी परिभाषाओं जैसे कर्म और भक्ति दोनों के लिए समान रूप से सही है| या फिर दोनों कर्म और भक्ति को एक साथ मिलाकर भी इस श्लोक के अर्थ निकाला जा सकता है| अर्थात जो मनुष्य ईश्वर के प्रति समर्पित होकर बिना किसी लालसा के अपना कर्म करता है वह स्वतः ही सन्यास की अवस्था धारण कर लेता है|