संधि विच्छेद
योग युक्तः विशुद्ध आत्मा विजित आत्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूत आत्मभूत-आत्मा कुर्वन्न अपि न लिप्यते ॥
अनुवाद
जो शुद्ध हृदय से, इन्दिर्यों पर नियंत्रण करके, सभी जीवों को अपने समान समझकर और ईश्वर में समर्पित होकर कर्म(योग) में संलग्न होता है वह कर्म करते हुए भी कर्मो में लिप्त नहीं होता(अर्थात कर्मो के बंधन से मुक्त हो जाता है)| या जो ईश्वर में पूर्ण समर्पित है, जो हृदय से शुद्ध है, और जिसने अपने अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लिया है| तथा जिसके लिए सभी जीव प्रिय और जो सभी जीवों का प्रिय है वह कर्म करता हुआ भी कर्म में लिप्त नहीं होता(अर्थात कर्मो के बंधन से मुक्त हो जाता है)|
व्याख्या
इस श्लोक में भी भगवान कर्मयोग क्रियात्मक रूप का वर्णन कर रहे हैं और यह स्पस्ट कर रहे हैं कि कैसे एक मनुष्य कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन से मुक्त होता है|
कोई भी कर्म किया जाए, उसका फल तो होता ही है, और जो कर्म करता है उस फल का भागी स्वतः ही होता है, और इस प्रकार कर्ता कर्म से बंध जाता है| लेकिन ऐसा कर्म कर्म योग नहीं कहलाता| वह कर्म जो शुद्ध हृदय, बिना किसी इन्द्रिय या मानसिक सुख की लालसा से की जाए और जिसमे दूसरों का हित निहित हो |ऐसा कर्म जब ईश्वर के श्री चरणों में समर्पित करके किया जाता है तो वह कर्म योग है| इस प्रकार का कर्म करने वाला कर्मफल के बंधन से मुक्त हो जाता है| फल से मुक्ति दूसरे शब्दों में सन्यास है|
इस प्रकार जो कर्मयोग की साधना करता है उसके लिए सन्यास की साधना स्वतः ही सिद्ध हो जाती है| लेकिन कर्मयोग सन्यास से उत्तम है क्योंकि कर्मयोग से सिर्फ अपना ही कल्याण नहीं बल्कि दूसरे जीवों का भी कल्याण होता है| सन्यास से तो सिर्फ साधना करने वाला ही लाभान्वित होता है कर्म योग से साधक और दूसरे भी लाभान्वित होते हैं|