अध्याय5 श्लोक8,9 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 08-09

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥

संधि विच्छेद

न एव किञ्चित् करोमि इति युक्तः मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यन् शृण्वन् स्पर्शन् जिघ्रन् अस्नन् गच्छन् स्वपन् स्वसन्॥
प्रलपन् विसृजन् उन्मिसन् निमिषन् अपि।
इन्द्रियाणि इन्द्रिय-अर्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥

अनुवाद

तत्व(सत्य) को जानने वाला योगी यद्यपि देखता है, सुनता है, स्पर्श करता है, सूँघता है, भोजन करता है, गमन करता है, सोता है, स्वास लेता है लेकिन वह जानता है कि वह स्वयं कुछ नहीं कर रहा | बल्कि बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए, आँख खोलते और बंद करते हुए उसे यह ज्ञात होता है कि प्राकृतिक नियमों के अधीन अंग वस्तुओं के साथ संलग्न हैं(कार्यों का होना एक प्राकृतिक क्रिया है) | इसलिए वह उनमे लिप्त नहीं होता |

व्याख्या

एक बहुत बड़ा प्रश्न हमेशा रहता है साधको के मन में, कि कर्म करते हुए कैसे कोई कर्मो के बंधन से मुक्त हो सकता है? इन दोनों श्लोको में इसी प्रश्न का उत्तर मिलता है| कर्मो के बंधन से मुक्ति के लिए कर्मो का त्याग(सन्यास) आवश्यक नहीं है| बल्कि कुछ लोग जो ऐसे मान लेते हैं कि कर्मो के त्याग कर देने से कर्मो के बंधन से मुक्ति हो जायेगी तो वह गलत है, जैसा कि अध्याय३:श्लोक ४ में भगवान ने स्पस्ट किया है:

“मनुष्य न तो निष्क्रिय होकर कर्म के बंधन से मुक्त हो सकता है और न ही कर्मो को त्यागकर (सन्यास) सिद्धि को प्राप्त कर सकता है|”(श्रीमद भगवद गीता ३.४)
कर्मो का त्याग तो किसी भी हाल में वैसे भी संभव नहीं, जैसा के अगले ही श्लोक में बताया गया है:

“निःसंदेह कोई भी [जीव्] क्षणमात्र भी बिना कुछ [कर्म] किये नहीं रह सकता क्योंकि प्रत्येक प्राणी प्रकृति जनित गुणों द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य है|” श्रीमद भगवद गीता ३.५

अर्थात कर्मो का त्याग संभव ही नहीं| उचित रूप से कर्म करके ही कर्मो के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है| ऊपर के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण यह स्पस्ट कर रहे हैं कि भौतिक शरीर का यापन करने के लिए सभी भौतिक जीवों को कर्म करना ही पडता है | लेकिन जो ज्ञानी होता है वह यह जानता है कि यह भौतिक शरीर प्राकृतिक जगत का एक भाग है और सभी भौतिक क्रियाएँ जैसे भूख का लगना, उत्सर्जन, गमन, स्वसन आदि भौतिक क्रियाएँ है जो ईश्वर के द्वारा बनाये गए प्राकृतिक नियमों के अधीन संपन्न होते हैं| एक तत्व ज्ञाता योगी इस सत्य को जानकर कर्मो में लिप्त नहीं होता, कुछ करने का अभिमान नहीं रखता| कार्य में सफलता और असफलता दोनों ही स्थितियों में वह प्रभावित नहीं होता|

ज्ञात हो कि श्रीमद भगवद गीता में के अन्य अध्यायों में दूसरे विषय के रूप में भी इस तथ्य का वर्णन है: जैसे अध्याय ३:२७ में कहा गया है:

“हे महाबाहो! जो ज्ञानी (तत्वविद) होते हैं वे गुणों और कर्म के इस रहस्य को जानते हैं कि [सात्विक, राजसिक और तामसिक] गुणो के बदलाव से सम्पूर्ण भौतिक कार्य संपन्न होते हैं| इस सत्य को जानकर इनमे(भौतिक परिवर्तनों में )आसक्त नही होते और कर्म करने का अहंकार नही रखते(अर्थात कर्ता होने का अहंकार नही रखते)| “ ३.२७