अध्याय5 श्लोक11 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 5 : कर्म सन्यास योग

अ 05 : श 11

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥

संधि विच्छेद

कायेन मनसा बुद्धया केवलैः इन्द्रियैः अपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वा आत्म शुद्धये ॥

अनुवाद

एक कर्मयोगी सभी [भौतिक] आसक्तियों का त्याग करके अपने शरीर,मन,बुधि और इन्द्रियों का प्रयोग सिर्फ अपनी अंतःकरण की शुद्धि के लिए करता है|

व्याख्या

पिछले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने मनुष्य के लिए एक आदर्श भौतिक जीवन का उदहारण प्रस्तुत किया| जैसे कमल जल रहते हुए भी जल से अलग रहता है वैसे ही मनुष्य को इस भौतिक जगत में रहते हुए इसके मोह से अलग रहना चाहिए|
इस श्लोक में उसी सन्दर्भ में भगवान भौतिक शरीर और कर्म योग का औचित्य प्रस्तुत कर रहे हैं| यह भौतिक शरीर न तो कोई बोझ है और न ही अकारण है| यह मनुष्य शरीर और कर्म वास्तव में परमात्मा को प्राप्त करने का साधन है| कर्म अपने आप में बंधनकारक नहीं है बल्कि मुक्ति का साधन हैं|एक योगी अपने शरीर, मन और बुधि और इन्द्रियों को ईश्वर प्राप्ति के लिए करता है| वह अपने कर्म से किसी फल की आकांशा नहीं बल्कि जीवों का कल्याण करता है और अपनी कर्मो को ईश्वर के चरणों में समर्पित करता है| इस प्रकार कर्म करता हुआ वह इस भौतिक जगत में शांति और सुख प्राप्त करता है और शरीर त्यागने के बाद जन्मो के बंधन से मुक्ति|