अध्याय6 श्लोक13,14 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 13-14

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥

संधि विच्छेद


समं काया शिरः ग्रीवं धारयन् अचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिका अग्रं स्वं दिशः च न अवलोकयन्‌ ॥
प्रशान्त आत्मा विगत भीवः ब्रम्हचारी व्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मत चित्तः युक्त आसीत मत्परः ॥

अनुवाद

काया(शरीर), सिर और गले को एक सीध में स्थित करके, अचल (बिना हिले-डुले) और स्थिर होकर अपनी दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर केंद्रित करते हुए, ब्रम्हचर्य व्रत में दृढ, भयरहित होकर, योगी शांत मन से मेरा चिंतन करते हुए और मुझमे आश्रित होकर(समर्पित होकर) ध्यान का अभ्यास करे|

व्याख्या

ऊपर के दो श्लोक ध्यान योग के विषय पर सबसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक हैं जिसमे ध्यान योग की गुढ़ रहस्य का वर्णन है| इनमे ध्यान के आरंभ होने से पहले से ध्यान के आरम्भ करने तक का तथ्य वर्णित है| अगर हम चरण वद्ध इन श्लोकों को समझना चाहे हैं तों इस प्रकार है:

१. शारीरिक स्थिति
सही शारीरिक स्थिति का होना ध्यान के लिए बहुत आवश्यक है| ध्यान के सफल अभ्यास के लिए शरीर, गर्दन और सिर एक सीधे होने चाहिए | इसलिए ध्यान करने के लिए साधक को ऐसे आसन का चयन करना चाहिए जिससे शरीर,गर्दन और सिर सीधा रखे जा सकें |

२. दृष्टि को केंद्रित करना

जैसा अध्याय ५ श्लोक #२८ में कहा गया, ध्यान के लिये नेत्र को बंद करके ध्यान को आज्ञा चक्र पर केंद्रित किया जाता है| लेकिन आज्ञा चक्र पर ध्यान केंद्रित करना अपने आप में एक दुर्लभ है| आज्ञा चक्र पर ध्यान का सीधा समबन्ध नेत्रों से है| नेत्रों के स्थिर होने से आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाने में मदद मिलती है| इसके लिए ध्यान आरम्भ करने के पहले साधक को अपने नेत्रों को नासिका के अग्र भाग पर केंद्रित करने का अभ्यास करना चाहिए|

३. ब्रम्हचर्य का पालन
ध्यान एक पवित्र और सात्विक क्रिया है और ईश्वर तक पहुचने की व्यावहारिक क्रिया है| इसके लिए शरीर और मन की पवित्रता आवश्यक है| यो मनुष्य ध्यान में सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें कामुक,विभस्त और उग्र वातावरण से दुरी बनाना चाहिए | ब्रम्हचर्य का सामान्य अर्थ होता है अपनी इन्द्रियों को कामुकता और भातिक वासना से मुक्त करना| यह शरीर और मन की शुद्धि का परम प्रभावी साधन है| ध्यान में सफलता के ब्रम्हचर्य का पालन करना चाहिए|

४. भक्ति
ध्यान के विषय में अक्सर यह तथ्य को नजर अंदाज़ किया जाता है| लेकिन ऊपर के श्लोक में इस तथ्य का दो बार वर्णन हुआ है| इन दो श्लोकों के यह स्पस्ट किया गया है कि ईश्वर के प्रति भक्ति ध्यान के लिए मुख्य आवश्यकता है| भगवान श्री कृष्ण ने अपनी ओर इंगित करते हुए दो शब्दों का प्रयोग किया है “मत चित्तः”, अर्थात मुझमे चित लगाकर और “मत्परः” अर्थात मेरे ऊपर आश्रित होकर, सबकुछ मुझे समर्पित करके| यह यह ध्यान देने योग्य बात है कि दोनों ही शब्दों में में उत्तम पुरुष का प्रयोग हुआ अर्थात भगवान स्वयं की ओर इंगित कर रहे हैं| योगी को भगवान श्री कृष्ण की चरणों में अपने आप को समर्पित करके और उन्हें अपने मन में धारण करके ध्यान का अभ्यास करना चाहिए

शब्दार्थ
ग्रीव = गर्दन
सम्प्रेक्ष्य = देखते हुए
भीवः = भय
विगत भीवः = भय को त्यागकर, भयमुक्त होकर
मत चित्तः = मुझमे चित्त में रखना
युक्त = जोड़कर, लगाकर(ईश्वर से जुडना)
मत चित्तः युक्त = मुझमे चित्त लगाकर
मत्परः = मुझपर आश्रित होकर