अध्याय6 श्लोक15 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 15

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥

संधि विच्छेद

युञ्जन्न एवं सदा आत्मानं नियत मानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत संस्थानम् अधिगच्छति ॥

अनुवाद

इस प्रकार अपने मन को नियमित करके (वश में करके) और अपनी आत्मा को निरंतर मुझमे स्थापित करके योग का अभ्यास करता हुआ योगी [इस जीवन में] शांति प्राप्त करता है और [शरीर त्यागने के बाद] मेरे धाम में आकर मोक्ष की परम अवस्था को (परम निर्वाण) प्राप्त करता है|

व्याख्या

पिछले श्लोकों में भगवान ने ध्यान योग करने की विधि का वर्णन किया, जिसमे स्थान कैसा हो, आसन कैसा हो तथा शरीर और मन की स्थिति कैसी हो उसका वर्णन किया| एक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि योगी उन्हें अर्थात भगवान कृष्ण को अपने मन में धारण करे क्योंकि वह (श्री कृष्ण) सम्पूर्ण सत्य और सभी योगों का अंतिम लक्ष्य हैं|

इस श्लोक में उसी तथ्य के आगे भगवान ने वर्णन किया कि दिए हुए नियम से ध्यान योग का निरंतर अभ्यास करता हुआ योगी अंततः इस जीवन में शांति प्राप्त करता है और जीवन के बाद मोक्ष| लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वैसा योगी न सिर्फ मोक्ष प्राप्त करता है बल्कि सभी मोक्षों में भी उत्तम, भगवान श्री कृष्ण के धाम में प्रवेश करता है और वहाँ अनंत काल के लिए निवास करता है|

शब्दार्थ
युञ्जन्न = अभ्यासरत(अभ्यास करता हुआ), प्रयासरत
आत्मानं =आत्मा में स्थित होना, आत्मा को ईश्वर में स्थित करना
नियत = नियमित करना, निश्चित करना, वश में करना
मानस = मन, मस्तिस्क
निर्वाण = मोक्ष
मत = मेरा, मेरे
संस्थान = स्थान, धाम
अधिगच्छति = जाता है, प्राप्त करता है(गच्छति= गम धातु से बना अन्य पुरुष एक वचन, गम = जाना)