अध्याय6 श्लोक18 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 18

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥

संधि विच्छेद

यदा विनियतं चित्तं आत्मनि एव अवतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इति उच्यते तदा ॥

अनुवाद

जब संयमित मन से योग का अभ्यास करता हुए [योगी के] सभी मोह और वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और वह अपनी आत्मा में लीन हो जाता है, तब उसे योग में सिद्ध [योगी] कहा जाता है|

व्याख्या

इसके पहले के श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने योग करने की विधि और योग के नियमों का वर्णन किया| जो मनुष्य उन नियमों का श्रधा पूर्वक पालन करके योग का अभ्यास करता है उसे योग में सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है| लेकिन कोई भी यह प्रश्न पूछ सकता है कि आखिर योग में सिद्ध प्राप्त हो गई है इसका पता कैसे चलेगा?

इस श्लोक में भगवान ने उसी प्रश्न का उत्तर दिया है| भगवान श्री कृष्ण ने कहाँ, कि उचित नियमों का पालन करते हुए जब योगी ऐसी अवस्था में पहुँच जाये जहाँ उसे किसी प्रकार के भोग की कामना न रहे, न किसी भी भौतिक पदार्थ से मोह न रहे बल्कि अपनी अंतःकरण में ही तल्लीन हो जाये| तब यह समझना चाहिए कि उसकी साधना सफल हुई और उसे योग में सिद्धि प्राप्त हो गई|

इसके आगे के श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने उस ध्यान और फिर समाधि की परम अवस्था का वर्णन किया है, जिसका अध्ययन हम आगे करेंगे|

शब्दार्थ:
विनियतं = नियमित करना, संयमित करना
चित्तं = मन, मस्तिस्क, चित्त
अवतिष्ठते = स्थित होना, लीन होना
निःस्पृहः = मुक्त होना, मोह रहित होना, शुद्ध होना
सर्व = सभी
कामेभ्यो = वासनाओं से, भोग की इक्षाओं से
उच्यते = कहा जाता है
युक्त = योग में स्थित होना, ईश्वर से युक्त होना