अध्याय6 श्लोक23,24 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 23-24

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
सङ्कशल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥

संधि विच्छेद

स निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्ण चेतसा ॥२३॥
सङ्कशल्प प्रभवान् कामान् त्यक्त्वा सर्वान् अशेषतः ।
मनसा एव इन्द्रिय ग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ २४॥

अनुवाद

मानसिक धारणा से उत्पन्न वासनाओं का पूर्ण त्याग करके और मन द्वारा सभी इन्द्रियों को सब प्रकार से (भली भांति) वश में करके इस [अष्टांग] योग का अभ्यास धैर्य और दृढ निश्चय के साथ करना चाहिए|

व्याख्या

पिछले कई श्लोकों में योग की सर्वोत्तम अवस्था, समाधि के महान गुणों का वर्णन किया गया| समाधि आनंद, शांति और संतुष्टि की परम अवस्था हैं और जिसे प्राप्त करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है|
लेकिन उस अवस्था को प्राप्त करना उतना आसन नहीं| योग में पूर्ण सफलता और समाधि की परम अवस्था को प्राप्त करने के लिए दृढ निश्चय, धैर्य की आवश्यकता पड़ती है| इसके अलावा मन से वैसी सभी कामनाओं जो गलत और भ्रामक धारणा से उत्पन्न हुए हैं का त्याग है और इन्द्रियों के ऊपर पूर्ण नियंत्रण भी आवश्यक है|
लेकिन मनुष्य को विश्वास रखना चाहिए कि अगर ऊपर के नियमों का पालन करते हुए अगर कोई योग का अभ्यास करेगा तों उसे सफलता अवश्य प्राप्त होगी|

शब्दार्थ

निश्चयेन = निश्चय पूर्वक, दृढ निश्चय करके
योक्तव्यः = प्रयास करना, युक्ति करना
अनिर्विण्ण = अडिग, धैर्य
चेतसा = चित से, मन से
सङ्कशल्प = अव्यवहारिक धारणा, भ्रामक या झूठी धारणा
प्रभवान् = उत्पन्न हुआ
कामान् = वासना
अशेषतः = बिना शेष रहे, पूर्ण
समन्ततः = सभी प्रकार से, सभी ओर से, सभी दिशाओं से
विनियम्य = नियमित करके, वश में करके
इन्द्रिय ग्रामं = इन्द्रियों के समूह, सभी इन्द्रियां