अध्याय6 श्लोक25 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 25

शनैः शनैरुपरमेद्बु-द्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥

संधि विच्छेद

शनैः शनैः उपरमेत बुद्धया धृति गृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचित अपि चिन्तयेत्‌ ॥

अनुवाद

दृढ संकल्प से बुद्धि को स्थिर करके, क्रमबद्ध तरीके से अभ्यास करते हुए साधक [योग] सिद्धि (योग की परम अवस्था अर्थात समाधि) को प्राप्त करे| वह अपने मन को अपनी आत्मा पर केंद्रित करते हुए किसी और [सांसारिक] वस्तु का चिंतन न करे|

व्याख्या

जैसे पीछे बताया गया कि समाधि योग साधना की परम अवस्था है जहाँ मनुष्य अपार आनंद का अनुभव करता है और उसके सभी दुखों का अंत हो जाता है| लेकिन उस अवस्था को प्राप्त करना आसान नहीं| उसके लिए कठिन साधना की आवश्यकता हो सकती है|
इसके पहले के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने बताया योग की सफल साधना के लिए दृढ निश्चय और आत्म संयम आवश्यक है|

इस श्लोक में भगवान यह स्पस्ट कर रहे हैं कि योग की साधना लंबी व क्रमबद्ध होती है| साधक को एक एक स्तर पर धीरे धीरे विजय प्राप्त करते हुए योग के मार्ग में आगे बढ़ना चाहिए| क्रमबद्ध रूप से नियमित अभ्यास से योग की सफलता निश्चित है|

अगर हम इस श्लोक के अर्थ को और आगे बढ़ाएं तों यह अष्टांग योग के विभिन्न अंगों की ओर इंगित करता है| जैसा हम्म जानते हैं अष्टांग योग के आठ अंग हैं, यम,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि | योग की सफल साधना के लिए साधक को इन सभी का क्रमबद्ध अभ्यास करना चाहिए

शब्दार्थ
शनैः शनैः = धीरे-धीरे, क्रमबद्ध, नियमबद्ध
उपरमेत = उन्मुख होना, उत्थान करना, पार कर जाना, सिद्ध होना आदि
धृति = धैर्य, दृढ संकल्प
गृहीतया = धारण करके,
आत्मसंस्थं = आत्मा या अंतःकरण में स्थित होकर
न किंचित = कुछ और नहीं, अन्य नहीं
चिन्तयेत्‌ = सोचे, विचार करे