अध्याय6 श्लोक26 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 26

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥

संधि विच्छेद

यतः यतः निश्चरति मनः चञ्चलम् अस्थिरम्‌ ।
ततः ततः नियम्य एतत आत्मनि एव वशं नयेत्‌ ॥

अनुवाद

जब जब यह चंचल मन अस्थिर होकर [सांसारिक विचारों या इक्षाओं में] भटके, तब तब साधक [को चाहिए कि] उसे(मन को) अनुशासन पूर्वक अपने वश में करके [परमात्मा पर] स्थिर करे|

व्याख्या

जैसा पिछले कई श्लोकों में यह वर्णित है कि योग की परम अवस्था समाधि, भौतिक जीवन की सबसे उच्च अवस्था है जहाँ ईश्वर का साक्षात्कार होना संभव है| परन्तु समाधि की अवस्था को प्राप्त करना आसान नहीं| उसे प्राप्त करने के लिए न सिर्फ धैर्य और संयम वरन् कठिन परिश्रम की आवश्यकता पड़ सकती है| समाधि की अवस्था को प्राप्त करना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि हमारे मन का शांत होना आसन नहीं| मन पल पल विचारों और इक्षाओं में भटकता रहता है| योग का अभ्यास कर रहे योगी के लिए भी मन को वश में करना एक कठिन कार्य है|
ऊपर के श्लोक में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि योगी को अपने मन को वश में करने का प्रयास करना चाहिए| मन कहीं भटकता है तों इसे पुनः ईश्वर पर स्थित करना चाहिए| अगर यह बार बार करना पड़े तब भी धैर्य पूर्वक इसका अभ्यास करना चाहिए| जो साधना में धैर्य नहीं खोता उसकी सफलता निश्चित होती है|

शब्दार्थ
निश्चरति = विचरता है, भटकता है, भ्रमित होता है
नियम्य = नियम पूर्वक
आत्मनि = आत्मा, अन्तःकरण
नयेत्‌ = नियत करे, वश में लाये