अध्याय6 श्लोक27 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 27

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥

संधि विच्छेद

प्रशान्त मनसं हि एनं योगिनं सुखम् उत्तमम्‌ ।
उपैति शांत रजसं ब्रह्मभूत कल्मषम्‌ ॥

अनुवाद

मेरी भक्ति में लीन (ब्रम्हभूत या ब्रम्ह में स्थित) योगी का मन स्थिर जो जाता है,रजोगुण से उत्पन्न उसकी भावनाएं(इक्षाएं) शांत हो जाती है और वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है| यह योगी [योग में सिद्धि प्राप्त कर] परम सुख को प्राप्त करता है|

व्याख्या

यह श्लोक अष्टांग योग की साधना के लिए बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है| पिछले कई श्लोकों में भगवान ने स्पस्ट किया कि अष्टांग योग की सिद्धि अर्थात समाधि की अवस्था भौतिक शरीर के लिए सबसे उत्तम अवस्था है जहाँ सभी दुखों का अन्त हो जाता है| लेकिन योग में सिद्धि के कठिन कार्य नहीं है| इसका कारण यह है कि मनुष्य एक भौतिक इकाई है, प्रत्येक भौतिक पदार्थ में तामसिक, राजसिक और सात्विक गुण होते ही है| साधारणतया एक सामान्य व्यक्ति में राजसिक गुणों की ही प्रधानता होती है| राजसिक गुण सभी इक्षाओं, कामनाओं, अभिमान आदि जैसी भावनाओं का श्रोत है| वैसे भी शरीर के अंग लगातार ही भौतिक पदार्थों में लालायित रहते ही हैं| राजसिक गुणों और अंगों के प्रभाव में मन कभी भी भटक सकता है योग की साधना भंग हो सकती है|

लेकिन जब एक योगी अपना सर्वस्व ईश्वर के चरणों में समर्पित करके अपना हृदय और मन में ही स्थित कर देता है तब उसकी आत्मा का सीधा तार परमात्मा से जुडता है | उसके मन और शरीर में सात्विक गुणों का प्रसार होता है और राजसिक गुण कम हो जाते हैं| राजसिक गुणों के कम होने से उसके अंग और मन स्थिर और शांत हो जाते हैं| फिर इतना कठिन से दिखने वाला योग उसके लिए आसन हो जाता है| इस प्रकार योग का प्रयास करता हुआ योगी योग में सिद्धि प्राप्त करता है और परम सुख पाता है| अतः इस श्लोक से भक्ति की श्रेष्ठता और उपयोगिता योग साधना के लिए भी सिद्ध होती है|

शब्दार्थ
उपैति = पार कर जाना, उपरना
ब्रह्मभूत = ब्रम्ह में स्थित जीव, परमात्मा में लीन आत्मा,
कल्मषम्‌ = पाप
रजसं = रजस गुण, भौतिक कामनाएं