अनुवाद
योग में सिद्ध [योगी] सभी जीवों को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को सभी जीवों में बिम्बित(कल्पित) देखता है |इस प्रकार वह सभी जीवों को समान देखता(मानता) है | या योग में सिद्ध योगी मुझमे सभी जीवों को स्थित और सभी जीवों में मुझे(मुझ परमात्मा को) स्थित देखता है|इस प्रकार वह मुझे सर्वत्र देखता है|
व्याख्या
यह श्लोक इतना गुढ़ है कि इसके कई अर्थ निकलते हैं, और दोनों ही अर्थ अत्यंत सूक्ष्म है| हालाकि किसी भी अर्थ को समझा जाए अन्त में निष्कर्ष एक समान ही निकलता है, वह यह कि के सिद्ध योगी जो योग की साधना से ब्रम्ह तत्व की प्राप्ति कर लेता है उसके लिए भौतिक भिन्नताओं कोया भेद समाप्त हो जाता है, उसके लिए एक जीव और दूसरे जीव में को अंतर नहीं रह जाता|
पहले अर्थ के अनुसार, एक सिद्ध योगी सभी जीवों को अपने ही समान समझता है, वह यह जान लेता है कि भले ही जीवों के शरीर भिन्न हैं लेकिन सभी जीवों में एक ही ब्रम्ह की शक्ति व्याप्त है और आत्मा के स्तर पर उनमे कोई भेद नहीं|
दूसरे अर्थ के अनुसार, एक सिद्ध योगी इस तत्व को जान लेता है कि भगवान श्री कृष्ण की शक्ति ब्रम्ह ही सभी जीवों में व्याप्त है, सभी जीव आत्माएं उसी ब्रम्ह के रूप है इसलिए वह सभी जीवों के ब्रम्ह के दर्शन करता है| उसके लिए सभी जीव पूजनीय और समान होते हैं|
हमे ज्ञात हो कि इस प्रकार के समदर्शन की चर्चा अध्याय ५ में भी की गई है, जहाँ पर ज्ञान के द्वारा ब्रम्ह तत्व की प्राप्ति का वर्णन किया गया| इससे इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है कि योग के विभिन्न मार्गों से होता हुआ साधक उसी ब्रम्ह प्राप्ति की अवस्था को प्राप्त करता है | इस तथ्य का अलग स्पस्ट वर्णन भी है:
सांख्य और योग को अज्ञानी भिन्न मानते हैं न कि ज्ञानी | दोनों [सांख्य या योग] में से किसी [एक] में भी पूर्ण रूप स्थित मनुष्य दोनों(सांख्य और योग) के फल को प्राप्त करता है|
सांख्य योगी जिस परम अवस्था को प्राप्त होते हैं [कर्म] योगी भी वही परम अवस्था प्राप्त करते हैं| सांख्य और योग एक ही हैं, जो इस सत्य को जानता है वही सच्चा ज्ञानी है|
(अध्याय ५:श्लोक ४-५)
ज्ञान योग, सांख्य योग, राज योगम् कर्म योग या भक्ति योग में से किसी भी मार्ग का पालन मनुष्य को मुक्ति प्रदान करते हैं| अपनी प्रकृति के अनुसार साधक को किसी भी मार्ग का चयन करके उसे श्रधा से पालन करना चाहिए|