अध्याय6 श्लोक30 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

संधि विच्छेद

यः मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्य अहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

अनुवाद

जो [मनुष्य] मुझे सर्वत्र देखता है(अर्थात सभी जीवो में मै व्याप्त हूँ ऐसा जानता है) और सबकुछ मेरे अंदर ही देखता है(पूरी सृष्टि मुझमे स्थित है ऐसा जानता है), मैं उससे दूर नहीं होता और वह मुझसे दूर नहीं होता|

व्याख्या

ऊपर के श्लोक में सनातन धर्मं के सबसे गुढ़ रहस्यों में से एक ईश्वर की सार्वभौमिकता का वर्णन है| हम शायद इसका अनुभव न कर पाते हों लेकिन यह सिद्धांत पुरे हिंदू समाज की नींव है, एक हिंदू चाहे वह अनपढ़ ही क्यों न हो लेकिन उसका यह विश्वास है कि ईश्वर कण कण में व्याप्त है इसलिए लिए वह कठिन परिस्थियों में भी जीव और प्रकृति के विरुध कार्य करने में संकोच करता है| यह सिद्धांत हजारों सालों से हिंदू समाज की नींव है|

ऊपर के श्लोक में भगवान ने यह स्पस्ट किया है कि इस ब्रम्हांड में प्रत्येक चर और अचर वस्तुएँ या जीव भगवान श्री कृष्ण के ही रूप हैं| हमे ज्ञात हो कि ईश्वर की दो शक्तियां हैं, माया और ब्रम्ह| माया सभी भौतिक पदार्थों का श्रोत है और ब्रम्ह सभी जीव आत्माओं का| इस प्रकार हम जो कुछ भी इस प्रकृति में देखते हैं वह ईश्वर के अंशों से ही निर्मित है|
इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि एक सच्चा योगी इस तथ्य को जब जान लेता है तब वह ईश्वर को सर्वत्र ही पाता है|
मेरे ख्याल से आम मनुष्य जब ईश्वर के बारे में सोचते हीं तों ईश्वर का मूल रूप जो स् शास्त्रों में वर्णित है,को देखना चाहते हैं| हाँ उस रूप का दर्शन दुर्लभ है क्योंकि भगवान उस रूप के साथ अपने धाम में निवास करते हैं और हमेशा उस रूप को प्रकट नहीं करते|
लेकिन फिर भी उस स्थिति में भी भगवान ने यह स्पस्ट किया है कि उनका भक्त कभी उनकी आँखों से ओझल नहीं होता| यह सत्य जानकर हमे अधीर नहीं होना चाहिए|