आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
संधि विच्छेद
आत्मा औपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यः अर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
अनुवाद
जो सभी में एकाकी भाव रखकर(सभी जीवों में एक ईश्वर की सत्ता जानकर) सुख और दुःख को सभी जीवों में समान रूप से देखता है वह योगी [मनुष्यों में]श्रेष्ठ है|
अथवा
जो योगी दूसरों के सुख और दुःख को अपने ही सुख और दुःख के समान समझता है वह [मनुष्यों में] श्रेष्ठ है|